बहादुर शाह जफर के वंशजों की अनसुनी दास्तां: रोशन आरा का सवाल – क्या हम भारत की विरासत नहीं हैं?

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भारत के अंतिम मुगल सम्राट और 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के प्रतीक, बहादुर शाह जफर के वंशज आज भी उपेक्षा की पीड़ा झेल रहे हैं। हाल ही में, उनकी वंशज बताई जाने वाली रोशन आरा ने एक भावुक वीडियो के माध्यम से देश से सवाल किया – “हमें क्यों नकारा गया?”

इस रिपोर्ट में हमने समाचार लेखों, ऐतिहासिक दस्तावेज़ों और सोशल मीडिया स्रोतों से जानकारी एकत्र करके यह रिपोर्ट तैयार की है ताकि जफर के परिवार के इतिहास, वर्तमान संघर्ष और रोशन आरा के बयान को ठीक समझा जा सके। यह ध्यान देने योग्य है कि इन वंशजों के दावे स्वघोषित हैं और जो दावे किए गए हैं उनको सरकारों ने नकारा है या एक मानसिकता के कारण छोड़ दिया गया है।

बहादुर शाह जफर और स्वतंत्रता संग्राम पर एक नज़र:

बहादुर शाह जफर (1775–1862), जिनका मूल नाम अबू जफर सिराजुद्दीन मुहम्मद था, भारत के अंतिम मुगल सम्राट थे। 1837 से 1857 तक शासन करने वाले जफर को 1857 के विद्रोह में प्रतीकात्मक नेतृत्व के लिए याद किया जाता है। विद्रोही सिपाहियों ने उन्हें “हिंदुस्तान का सम्राट” घोषित किया और उन्होंने ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के विरुद्ध फरमान जारी किए।

हालांकि, विद्रोह के दमन के बाद उन्हें राजद्रोह के आरोप में रंगून (अब यांगून, म्यांमार) निर्वासित कर दिया गया, जहां उनका निधन गुमनामी में हुआ। उनकी प्रसिद्ध शायरी की पंक्ति – “कितना है बद-नसीब ‘ज़फ़र’ दफ़्न के लिए, दो गज ज़मीन भी न मिली कू-ए-यार में” – उनकी त्रासदी को दर्शाती है।

विद्रोह के बाद मुगल वंश के सदस्य तितर-बितर हो गए और अधिकांश गरीबी व सामाजिक उपेक्षा का शिकार बने। ब्रिटिश शासन ने लाल किला और अन्य मुगल संपत्तियां जब्त कर लीं, जिससे उत्तराधिकार की कोई ठोस व्यवस्था शेष नहीं रही।

वर्तमान में उपेक्षित वंश की दुर्दशा:

कोलकाता के हावड़ा में रहने वाली लगभग 60 वर्षीय सुल्ताना बेगम, बहादुर शाह जफर के परपोते मिर्जा बेदार बख्त की विधवा हैं। वह एक छोटी सी झुग्गी में अत्यंत गरीबी में जीवन यापन कर रही हैं और वर्षों से एक चाय का स्टॉल चलाकर अपनी जीविका चला रही हैं। उनके आवास का क्षेत्रफल महज़ 66 वर्ग फुट बताया गया है।

उन्होंने बार-बार सरकार से सहायता की गुहार लगाई है, विशेष रूप से स्वतंत्रता सेनानियों के वंशजों के लिए मिलने वाली पेंशन की मांग की है। 2009 में उनके परिवार की एक सदस्य मधु को सरकारी नौकरी का प्रस्ताव दिया गया था, लेकिन वह पूर्णतः कार्यान्वित नहीं हो सका।

मई 2025 में, सुप्रीम कोर्ट ने लाल किले पर उनके स्वामित्व के दावे को खारिज कर दिया। याचिका में यह कहा गया था कि लाल किला 1857 में अवैध रूप से जब्त किया गया और मुआवजे सहित इसे वापस किया जाना चाहिए। अदालत ने याचिका की देरी और किले की राष्ट्रीय धरोहर की स्थिति को कारण बताते हुए इसे अस्वीकार कर दिया।

रोशन आरा की भावुक अपील पर सामाजिक प्रतिक्रिया:

रोशन आरा, जो खुद को सुल्ताना बेगम की नवासी और बहादुर शाह जफर की पर-पर-नवासी बताती हैं, ने जुलाई 2025 में एक वायरल वीडियो में भावुक होकर देशवासियों से पूछा: “आख़िर हमें क्यों नकारा गया?”

उन्होंने भारत की सांस्कृतिक धरोहर में मुगलों के योगदान, ताजमहल और लाल किले जैसी संरचनाओं से होने वाली आय, और अपने परिवार की “ईमानदारी” तथा “शराफत” पर बल दिया। उनका तर्क था कि इन सबके बावजूद उनके परिवार को न कोई मान्यता मिली और न कोई सहयोग।

यह भावनाएं सुल्ताना बेगम के स्वतंत्रता दिवस (अगस्त 2025) पर दिए गए बयान में भी परिलक्षित होती हैं, जब उन्होंने कहा: “अगर जफर ने आत्मसमर्पण कर दिया होता तो क्या आज हमें इतनी तकलीफ होती?”
यह कथन जफर के ब्रिटिश-विरोधी रुख और उसकी कीमत पर सवाल उठाता है।

सरकार और समाज का दृष्टिकोण:

अब तक सरकार ने बहादुर शाह जफर के वंशजों के लिए कोई समर्पित योजना या पेंशन नहीं बनाई है। जहां कुछ राज्य स्तरीय स्रोतों से सुल्ताना बेगम को 400-600 रुपये मासिक मिलते हैं, वह जीवन यापन के लिए अपर्याप्त हैं।

समाज की राय बंटी हुई है—कुछ लोग परिवार को औपनिवेशिक उत्पीड़न और स्वतंत्र भारत की उपेक्षा का शिकार मानते हैं, जबकि अन्य मुगलों की ऐतिहासिक भूमिका पर प्रश्न उठाते हैं। सोशल मीडिया पर इस विषय पर चर्चा तेज है, जिसमें लोग ताजमहल और लाल किले की भारी आय के बावजूद वंशजों की हालत पर सवाल उठा रहे हैं।

निष्कर्ष:

रोशन आरा का सवाल केवल एक व्यक्ति की अपील नहीं, बल्कि उस ऐतिहासिक विडंबना का प्रतीक है जिसमें स्वतंत्रता संग्राम के प्रतीक व्यक्ति के वंशज आज संघर्षरत हैं।
प्रामाणिक रिपोर्टें इस बात की पुष्टि करती हैं कि परिवार आज भी आर्थिक और सामाजिक संघर्ष से जूझ रहा है, और इसका मूल कारण 1857 की ऐतिहासिक घटनाओं से जुड़ा है।

सिफारिशें:

सरकार को सत्यापित वंशजों के लिए एक प्रतीकात्मक सम्मान-पेंशन या धरोहर कोष पर विचार करना चाहिए।

स्वतंत्र वंशावली सत्यापन की प्रक्रिया को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए।

ऐतिहासिक विरासत और आधुनिक सामाजिक न्याय के बीच पुल बनाने की आवश्यकता है, जिससे भारत अपने अतीत को सही तरीके से सम्मान दे सके।

रिपोर्ट: ITN Desk.

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