हाल ही में सहारनपुर के एक गांव में एक पब्लिक प्रोग्राम के दौरान जब सांसद इकरा हसन ने ये बताया कि उन्हें ‘मुल्ली’ और ‘आतंकवादी’ जैसे शब्दों से बुलाया गया, तो वो सुनते हुए ही रो पड़ीं। ये बात सुनने में भले ही एक घटना लगे, मगर ये उस बड़ी तकलीफ़ का हिस्सा है जिससे भारत में मुस्लिम महिलाओं को अक्सर गुजरना पड़ता है – खासकर जब वो राजनीति या पब्लिक लाइफ में कदम रखती हैं।
इकरा हसन ने साफ कहा, “ये सिर्फ मेरा नहीं, पूरे इलाके की महिलाओं का अपमान है।” उनका दर्द उस पूरे समाज का दर्द है जहाँ किसी महिला का आगे आना अब भी कुछ लोगों को बर्दाश्त नहीं होता – और अगर वो मुस्लिम हो, तो उसके खिलाफ नफरत और बढ़ जाती है।
इकरा हसन के बारे में:
इकरा हसन एक युवा सांसद हैं, जिन्होंने कम उम्र में ही राजनीति में बड़ा मुकाम हासिल किया। उन्होंने विदेश से पढ़ाई की है, और कानून व पॉलिटिक्स की अच्छी समझ रखती हैं। लेकिन जब वो ग्राउंड पर जाती हैं – गांवों में, लोगों के बीच – तो उन्हें उनका मजहब और जेंडर याद दिलाया जाता है, मानो उनकी पहचान सिर्फ ‘मुल्ली’ या ‘मुस्लिम’ है, इंसान या लीडर नहीं।
उन्होंने उस दिन ये भी कहा कि किसी भी धर्मस्थान का अपमान गलत है, और वो कभी भी उन लोगों का साथ नहीं देंगी जो समाज में नफ़रत फैलाते हैं। साथ ही, उन्होंने ये भी साफ कर दिया कि वो दबकर राजनीति नहीं करेंगी – और सच के लिए आवाज़ उठाती रहेंगी।
मुस्लिम महिलाओं की राजनीति में भागीदारी:
क्या आप जानते हैं कि आज़ादी के बाद से अब तक सिर्फ 18 मुस्लिम महिलाएं ही लोकसभा तक पहुँच पाई हैं?
भारत की आबादी में मुस्लिम महिलाओं की हिस्सेदारी लगभग 7% है,
मगर लोकसभा में उनका प्रतिनिधित्व केवल 0.6% रहा है,
18 में से 13 महिलाएं ऐसी रही हैं जो पहले से राजनीतिक परिवारों से जुड़ी हुई थीं।
यानि एक आम मुस्लिम लड़की के लिए राजनीति में आना बहुत मुश्किल है। ना सिर्फ बाहर से विरोध होता है, बल्कि अपने घर और समाज के अंदर भी कई तरह की बंदिशें होती हैं।
कुछ नाम जो याद रखे जाने चाहिए:
मुफीदा अहमद – 1957 में लोकसभा में पहुँचीं, अपने गहने भी देश की सेवा के लिए दान कर दिए थे।
ज़ोहराबेन चौधरी – गांधी जी की शिष्या, सांसद बनीं।
बेगम अकबर जहां – कश्मीर की आवाज़ बनीं।
रशीदा हक चौधरी – भारत की पहली मुस्लिम महिला मंत्री बनीं।
इनके नाम हमें ये बताते हैं कि जब हिम्मत होती है, तो रास्ता खुद बनता है। मगर ये नाम गिनती के ही क्यों हैं? ऐसा क्यूँ है कि हर चुनाव में मुस्लिम महिलाओं को टिकट ही नहीं दिया जाता?
क्या रुकावटें हैं?
- पार्टी भरोसा नहीं करती: ज़्यादातर राजनीतिक पार्टियां सोचती हैं कि मुस्लिम महिलाएं जीत नहीं पाएंगी, इसलिए उन्हें टिकट नहीं देतीं।
- घर का दबाव: मुस्लिम समाज में कई बार महिलाओं को घर की चारदीवारी से बाहर निकलने की इजाजत नहीं दी जाती। राजनीति तो बहुत दूर की बात है।
- बोलने पर रोक: जब कोई मुस्लिम महिला आवाज़ उठाती है, तो उसे तुरंत “मुल्ली”, “कट्टरपंथी” या “पाकिस्तान समर्थक” जैसी बातें सुनने को मिलती हैं।
- मीडिया की भूमिका: कई बार मीडिया भी इन महिलाओं को संजीदगी से नहीं लेता – या तो उन्हें मज़हब से जोड़कर देखा जाता है या नज़रअंदाज़ किया जाता है।
इकरा की आवाज़, एक उम्मीद:
इकरा हसन सिर्फ एक नेता नहीं हैं, वो उस नई पीढ़ी की आवाज़ हैं जो पढ़ी-लिखी है, समझदार है और अपने हक के लिए बोलना जानती है। जब वो कहती हैं, “मैं दबकर राजनीति नहीं करूंगी,” तो वो उन हजारों लड़कियों के दिल की बात कह रही होती हैं, जो आज भी चुप हैं क्योंकि उन्हें डराया गया है।
उनका रोना कमजोरी नहीं है, बल्कि वो दर्द है जो हर उस लड़की ने सहा है जो कुछ अलग करना चाहती थी – मगर समाज ने उसे सिर्फ मज़हब के चश्मे से देखा।
आगे क्या होना चाहिए?
- राजनीतिक दलों को ज़िम्मेदारी लेनी चाहिए: मुस्लिम महिलाओं को टिकट देना, उन्हें ट्रेनिंग देना और सपोर्ट करना ज़रूरी है।
- समाज को सोच बदलनी होगी: महिलाओं को सिर्फ बहन, बीवी या बेटी नहीं – लीडर के रूप में भी देखना होगा।
- मीडिया को सच्चाई दिखानी चाहिए: सिर्फ TRP के लिए सनसनी नहीं, हकीकत भी दिखाएं।
- हर नागरिक को खड़ा होना होगा: चाहे वो मुस्लिम हो या नहीं – अगर एक महिला के साथ गलत हो रहा है, तो सबको बोलना चाहिए।
आखिर में…
इकरा हसन को जो गालियाँ दी गईं, वो भारत की आत्मा पर धब्बा हैं। ये सिर्फ एक नेता का अपमान नहीं, बल्कि लोकतंत्र और महिला सशक्तिकरण की तौहीन है। आज जब देश महिला आरक्षण पर बात कर रहा है, तो ये देखना दुखद है कि एक महिला को उसके मजहब की वजह से निशाना बनाया जा रहा है।
हम सबकी ज़िम्मेदारी है कि ऐसे माहौल को बदलें – ताकि कोई भी लड़की, चाहे वो किसी भी मजहब या जाति की हो, अपने सपनों को पूरा करने से डर न पाए।
रिपोर्ट: ITN Desk.