वोटबंदी की हार: आधार से मताधिकार

Share this News

सांप मरा तो नहीं लेकिन उसका डंक निकल गया। सुप्रीम कोर्ट के 8 सितंबर के फैसले से वोटबंदी का अभियान अभी रुका तो नहीं, लेकिन विशेष गहन पुनरीक्षण (एसआईआर) के बहाने लाखों-करोड़ों नागरिकों का मताधिकार छीने जाने की आशंका पर काफ़ी हद तक विराम लग गया। यह आदेश किसी पार्टी की विजय नहीं है, बल्कि लोकतंत्र में नज़रों से ओझल लोक की विजय है। अगर इस निर्णय को राष्ट्रीय स्तर पर मान्य किया जाए तो इससे राष्ट्रव्यापी एसआईआर में कोई 10 करोड़ नागरिकों का वोट कटने से बच जाएगा। इस लिहाज से यह आधार से मताधिकार देने का यह आदेश ऐतिहासिक साबित हो सकता है।

पहली नज़र में देखें तो यह आदेश बहुत सीमित और तकनीकी है। निर्वाचन आयोग द्वारा बिहार से शुरू हुई वोटर लिस्ट के विशेष गहन पुनरीक्षण की प्रक्रिया पर कई संवैधानिक, कानूनी और प्रक्रियागत सवाल उठाये गए हैं। सुप्रीम कोर्ट का नवीनतम आदेश फ़िलहाल इनमें से किसी भी बुनियादी सवाल का जवाब नहीं देता। वह सिर्फ़ एक व्यावहारिक सवाल तक सीमित है: नई वोटर लिस्ट बनाते वक्त चुनाव आयोग किन दस्तावेजों को स्वीकार करेगा?

लेकिन यह सीमित सवाल ज़मीन पर एसआईआर का सबसे बड़ा सवाल बन गया था। इस का कारण था चुनाव आयोग की एक अजीबोगरीब सूची। अब तक वोटर लिस्ट के संशोधन करते समय सभी लोगों से कुछ भी दस्तावेज नहीं मांगा जाता था। लेकिन अगर कोई नया नाम जुड़वाना चाहे तो उसे चुनाव आयोग का फॉर्म-6 भरना पड़ता था जिसके तहत उन चंद लोगों से सामान्यतः प्रचलित १२ दस्तावेज में से एक-दो मांगे जाते थे। लेकिन एसआईआर के आदेश में चुनाव आयोग ने उन पुरानी सूची में से ९ दस्तावेजों को ख़ारिज कर दिया और उसके बदले ८ नए दस्तावेज जोड़ कर ११ दस्तावेजों की एक नई सूची बनायी जो एसआईआर के तहत मान्य होंगे।

अजीब बात यह थी कि जो दस्तावेज लोगों के पास मिल सकते हैं उन्हें लिस्ट से निकाल दिया गया और जो बहुत कम लोगों के पास हैं उन्हें लिस्ट में जोड़ दिया गया। नीचे दिए गए सभी आंकड़े बिहार में १८ से ४० वर्ष के आयु समूह के बारे में आधिकारिक स्रोतों से लिए गए हैं। पुरानी लिस्ट से तीन दस्तावेज नई लिस्ट में शामिल किए गए: पासपोर्ट (बिहार में ५% से कम वयस्क व्यक्तियों के पास है), जन्म प्रमाण पत्र (२% से कम) और मैट्रिक या अन्य डिग्री (लगभग ४३%) के प्रमाणपत्र। लिस्ट में जो नए दस्तावेज जोड़े गए उनकी बानगी देखिए: राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (बिहार में है ही नहीं), सरकारी नौकरी का पहचान पत्र (१%), वनाधिकार पट्टा (नगण्य) स्थायी निवास पत्र (बिहार में जारी नहीं होता), जाति प्रमाण पत्र (१५-२०%), ज़मीन/मकान आवंटन पत्र (१%) आदि। बिहार के डेढ़ से दो करोड़ लोगों के पास इनमे से कोई काग़ज़ नहीं है। अब कुछ उन दस्तावेजों पर गौर कीजिए जिन्हें अब तक चुनाव आयोग स्वीकार करता रहा है, आज भी बाक़ी देश में मान्य करता है, लेकिन जिन्हें एसआईआर की लिस्ट से निकाल दिया गया: बैंक पासबुक (७८%), पैन कार्ड (५६%) मनरेगा जॉब कार्ड (३४%) ड्राइविंग लाइसेंस (८%) और पाँच साल पहले तक मान्य राशन कार्ड (६४%) जैसे दस्तावेज।

आधार कार्ड इन ग़ायब दस्तावेजों की सूची में सबसे महत्वपूर्ण है।अब तक चुनाव आयोग हर नए वोटर से आधार कार्ड माँगता रहा है, लेकिन एसआईआर के दस्तावेजों की सूची से यह गायब है। यह एक आश्चर्यजनक फ़ैसला था चूंकि आधार कार्ड वो एकमात्र दस्तावेज है जिसको वोटर लिस्ट के लिए जन प्रतिनिधित्व अधिनियम १९५० की धारा २३(४) के तहत क़ानूनी मान्यता है। आधार उन चंद दस्तावेजों में है जो नाम, आयु, माँ-पिता के नाम, फ़ोटो और निवास को प्रमाणित करता है। पासपोर्ट को छोड़ कर और किसी दस्तावेज की प्रमाणिकता इतनी व्यापक नहीं है। और सबसे बड़ी विशेषता यह कि आधार कार्ड लगभग सर्वव्यापी (बिहार की जनसंख्या में ८८%, लेकिन वयस्क लोगों में लगभग १००%) है। इसलिए सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार की सैद्धांतिक लड़ाई व्यवहार में आधार कार्ड को मान्य करने के सवाल पर लड़ी गई। चूंकि आधार कार्ड को मान्य करने का मतलब था कमोबेश प्रत्येक वयस्क निवासी को मताधिकार प्रदान करना।

इसीलिए वोटबंदी के पैरोकार आधार कार्ड को ना मानने पर अड़े हुए थे। चुनाव आयोग ने तर्क दिया कि आधार कार्ड नागरिकता का प्रमाण नहीं है। लेकिन इस संदर्भ में यह कानूनी तथ्य अप्रासंगिक था चूंकि वोटर लिस्ट के लिए उसकी जरूरत नहीं है। वैसे भी चुनाव आयोग द्वारा मान्य अधिकांश दस्तावेज नागरिकता के प्रमाण नहीं हैं। जो सरकार दिन-रात हर योजना को आधार कार्ड से जोड़ रही है, उसी के प्रवक्ता अब आधार के ख़िलाफ़ दुष्प्रचार में जुट गए। कहा गया कि बिहार के कुछ जिलों में आबादी की तुलना में १४०% आधार कार्ड हैं। इशारा मुस्लिम बाहुल्य सीमांचल के जिलों पर था। यह सफ़ेद झूठ था, चूँकि यह गिनती करने वालों ने आबादी के आंकड़े २०११ से उठाए थे और आधार कार्ड के आंकड़े २०२५ से! इस ऊट-पटाँग गिनती के हिसाब से तो कुछ जिले ही नहीं पूरे बिहार और देश का आंकड़ा १००% के ऊपर होगा। यह कहा गया कि जाली आधार कार्ड बनाना आसान है, बिना यह पूछे कि इसे ठीक करने की जिम्मेदारी किसकी है। इस तथ्य को भी दबा दिया गया कि चुनाव आयोग द्वारा मान्य निवास प्रमाण पत्र तो पिछले महीने एक कुत्ते और ट्रेक्टर के नाम पर भी जारी हो चुका था। बताया गया कि आधार कार्ड तो विदेशियों और भारतीय मूल के ग़ैर नागरिकों का भी बन सकता है, लेकिन इस बात को छुपा लिया गया कि ग़ैर भारतीय लोगों के आधार कार्ड सामान्य से अलग होते हैं चूंकि उनकी एक समय सीमा बंधी होती है।

फिर भी सुप्रीम कोर्ट में चुनाव आयोग येन-केन-प्रकारेण आधार को ना मानने पर अड़ा रहा। अदालत ने पहले शराफ़त से सुझाव दिया, फिर इशारा किया, फिर केवल काटे हुए नामों के बारे में सीमित आदेश दिया। लेकिन चुनाव आयोग ने सर्वोच्च न्यायालय के आदेश का भी मान नहीं रखा। बल्कि आधार को स्वीकार करने वाले कर्मचारियों पर अनुशासनात्मक कार्यवाही शुरू की। ऐसे में अदालत के पास यह स्पष्ट आदेश देने के सिवा कोई रास्ता नहीं बचा था कि आधार कार्ड को भी अन्य ११ दस्तावेजों की तरह १२ वाँ दस्तावेज माना जाएगा। ज़ाहिर है अदालत ने इसकी इजाज़त दी है कि अन्य कागजों की तरह आधार कार्ड की प्रमाणिकता की भी जांच की जा सकेगी। अब आशा करनी चाहिए की चुनाव आयोग अदालत के आदेश को उसकी भावना के अनुरूप बिहार में लागू करेगा और उसका सम्मान करते हुए शेष भारत में एसआईआर लागू करते समय शुरू से ही आधार को वांछित दस्तावेजों की सूची में शामिल कर देगा। अगर चुनाव आयोग अब भी आना-कानी करता है तो उससे यह संदेह गहरा होगा कि चुनाव आयोग वोट काटने के राजनीतिक षड्यंत्र में शामिल है।

Yogendra Yadav । योगेन्द्र यादव
National Convenor, Bharat Jodo Abhiyaan | Member, Swaraj India | Swaraj Abhiyan| Jai Kisan Andolan
राष्ट्रीय संयोजक, भारत जोड़ो अभियान | सदस्य, स्वराज इंडिया| स्वराज अभियान| जय किसान आंदोलन

Share this News

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *