उत्तराखंड के पौड़ी गढ़वाल में बाघ का कहर: हलसी गांव में महिला को बनाया शिकार, पूरे क्षेत्र में दहशत का माहौल

पौड़ी गढ़वाल (उत्तराखंड) की हरी-भरी पहाड़ियों में आज एक दिल दहला देने वाली घटना घटी

कांडाखल (पौड़ी गढ़वाल), 22 जून 2025 | पौड़ी गढ़वाल ज़िले के हलसी गांव में शाम के ठीक 4:40 बजे बाघ ने एक 38 वर्षीय महिला, बिमला देवी पर जानलेवा हमला कर दिया, जिससे उनकी मौके पर ही मृत्यु हो गई। यह घटना गांव के नजदीक स्थित कांडाखाल प्राइमरी स्कूल के पास घटी, जब बिमला देवी अपने पालतू पशुओं – गाय और बकरियों को चराने के लिए जंगल के किनारे गई थीं।उनकी दर्दनाक मौत से पूरा क्षेत्र शोक और आक्रोश की आग में झुलस रहा है। पीड़िता अपने पीछे दो छोटे बच्चे, एक पति और बुजुर्ग सास को छोड़ गई हैं। गांव में मातम पसरा हुआ है, और परिजनों का रो-रो कर बुरा हाल हो गया है।

भीड़ उमड़ी, आक्रोश उफान पर

घटना की खबर जंगल की आग की तरह फैली और कुछ ही देर में हलसी, पल्ला, जवाद, हतनूर, कांडा सहित आस-पास के कई गांवों से सैकड़ों लोग घटनास्थल पर जमा हो गए। सभी की आंखों में आंसू और दिलों में गुस्सा था। लोगों ने फॉरेस्ट विभाग के खिलाफ जमकर नारेबाजी की और सवाल किया कि आखिर कब तक बाघ और अन्य हिंसक जानवर निर्दोष लोगों की जान लेते रहेंगे?स्थानीय लोगों का कहना है कि यह कोई पहली घटना नहीं है। बीते कई महीनों से ग्रामीण अपने मवेशियों के मारे जाने और बाघ की गतिविधियों की जानकारी वन विभाग को देते आ रहे थे, लेकिन कोई ठोस कार्रवाई नहीं की गई। शिकायतें अनसुनी रहीं और नतीजा यह हुआ कि आज एक महिला को अपनी जान गंवानी पड़ी।”

क्या जान की कोई कीमत नहीं?

“गांव की एक बुजुर्ग महिला ने रोते हुए कहा, “क्या इंसानों की जान इतनी सस्ती हो गई है कि एक बाघ की वजह से हमें मरना पड़े? हम जानवरों को बचाने के नाम पर इंसानों की जान गंवा रहे हैं।” उनका सवाल सीधे उत्तराखंड सरकार और वन विभाग के लिए था।स्थानीय निवासी बलवंत सिंह का कहना था, “हमने कई बार बताया कि चारागाहों में बाघ घूम रहे हैं। पहले उन्होंने हमारे पालतू जानवर मारे, अब इंसानों की बारी आ गई है। क्या वन विभाग को किसी की मौत का इंतज़ार था?”

चारागाह बने खतरे का घर

यह क्षेत्र पहाड़ी और जंगलों से घिरा हुआ है। स्थानीय लोग अपनी आजीविका के लिए पालतू जानवर पालते हैं और रोज़ाना दूर-दराज के चारागाहों में ले जाते हैं। घास, पानी और लकड़ी की जरूरतों के लिए उन्हें अकेले जंगलों की ओर निकलना पड़ता है। लेकिन अब बाघों की बढ़ती संख्या के कारण यह दैनंदिन गतिविधियां जानलेवा बनती जा रही हैं।

एक ग्रामीण ने बताया, “अब अकेले घर से निकलना किसी जोखिम से कम नहीं। यह हाल तब है जब सड़कों के किनारे एक साथ छह बाघों को देखा गया है। ये झुंड बनाकर घूम रहे हैं और किसी भी समय हमला कर सकते हैं।”

जानवरों की तस्करी या विभाग की लापरवाही?

स्थानीय लोगों में यह शंका भी है कि वन विभाग स्वयं कुछ जंगली जानवरों को इन क्षेत्रों में छोड़ रहा है। गांव वालों का कहना है कि इन बाघों को संरक्षित जंगलों में न रखकर, खुले चारागाहों में छोड़ा गया है, जिससे वे सीधे आम लोगों के जीवन में खतरा बन गए हैं।एक युवा ग्रामीण ने बताया, “हमने देखा है कि कुछ बाघों को ट्रक से लाकर यहां छोड़ा गया था। अब ये आदमखोर बनते जा रहे हैं। क्या हमारे गांवों को बलि का बकरा बनाया जा रहा है?”

मौत के बाद पिंजरा, पहले क्या था?

इस घटना के बाद वन विभाग हरकत में तो आया, लेकिन बहुत देर से। विभाग ने मौके पर पहुंचकर बाघ को पकड़ने के लिए पिंजरा लगाया। हालांकि, इस बाघ ने घटना के बाद तीन बार गांव में लौटकर अपने शिकार को खाने की कोशिश की। यह दर्शाता है कि अब यह बाघ आदमखोर बन चुका है और उसे पकड़ना ही पर्याप्त नहीं है — मारना ज़रूरी है।ग्रामीणों ने इस पर भी सवाल उठाया कि जब पहले से चेतावनी दी गई थी, तब पिंजरे और सुरक्षा इंतजाम क्यों नहीं किए गए? क्या किसी की जान जाने के बाद ही विभाग जागेगा?

पहाड़ों में जीवन एक संघर्ष

उत्तराखंड के पहाड़ी इलाकों में पहले ही जीवन बेहद कठिन है। यहां लोगों को बर्फबारी, भूस्खलन, सड़क दुर्घटनाएं, और प्राकृतिक आपदाओं से जूझना पड़ता है। अब हिंसक जंगली जानवरों का डर इन समस्याओं में एक और बड़ा संकट बनकर उभरा है।

एक स्थानीय पत्रकार ने बताया, “कभी भालू का हमला, कभी हाथीयों की भय, कभी नदी में बह जाने का डर, कभी पेड़ से गिर जाने का डर, इत्यादि उत्तराखंड में जिंदगी हर पल खतरे में रहती है। अब बाघों ने जो आतंक मचाया है, वह स्थिति को और गंभीर बना रहा है।”

पहाड़ों से शहरों की ओर पलायन — और तेज़ होगा?

यह सवाल अब गहराता जा रहा है कि क्या राज्य सरकार और वन विभाग समय रहते कोई ठोस कदम उठाएंगे? अगर नहीं, तो जो थोड़े बहुत लोग इन दुर्गम पहाड़ों में रह भी रहे हैं, वे भी जल्द ही मैदानी इलाकों की ओर पलायन को मजबूर हो जाएंगे।

पहाड़ी गांवों में खेती पहले ही वीरान हो चुकी है। युवा नौकरी की तलाश में शहरों की ओर जा चुके हैं। जो लोग बचे हैं, वे या तो मजबूरी में हैं या प्रकृति के प्रेम में। लेकिन अब उनके लिए यहां रहना खतरे से खाली नहीं।

समाधान क्या है?

इस संकट का स्थायी समाधान तभी निकल सकता है जब राज्य सरकार और वन विभाग एक संयुक्त रणनीति बनाएं:

1. संवेदनशील क्षेत्रों की पहचान कर वहां सुरक्षा इंतजाम किए जाएं।

2. आदमखोर बाघों को तुरंत मारने या हटाने की अनुमति दी जाए।

3. गांवों के आसपास कैमरा ट्रैप और गश्त को अनिवार्य किया जाए।

4. ग्रामीणों को जागरूक करने के लिए अभियान चलाए जाएं ताकि वे जंगलों में अकेले न जाएं।

5. पालतू जानवरों की सुरक्षा के लिए सामूहिक चराई क्षेत्र बनाए जाएं।

सरकार और प्रशासन से सवाल

क्या उत्तराखंड सरकार इस घटना को महज “एक और हादसा” समझकर भूल जाएगी?

क्या पीड़िता के परिवार को उचित मुआवज़ा मिलेगा?

क्या वन विभाग की लापरवाही की जांच होगी?

क्या आदमखोर बाघ को मारा जाएगा या फिर से “संरक्षण” के नाम पर छोड़ दिया जाएगा?

अंत में में यही कहूंगा कि बिमला देवी की मौत केवल एक महिला की मौत नहीं है। यह एक पूरे तंत्र की विफलता है। यह सवाल है कि क्या इंसानों की जानें वन्यजीव संरक्षण की कीमत चुकाएंगी? क्या पहाड़ों में रहने वालों की जिंदगी सस्ती है? जब तक सरकार, प्रशासन और वन विभाग मिलकर इस समस्या की गंभीरता को नहीं समझेंगे, तब तक बाघ तो एक बहाना है — असली खतरा वह व्यवस्था है जो समय रहते काम नहीं करती।

अब वक्त है जागने का, कार्रवाई का — नहीं तो कल किसी और की मां, बहन, बेटी, बेटा शिकार बन जाएंगे और सारे तमसाई एकत्र होंगे, मातम करेंगे और क्या करेंगे।

रिपोर्ट: मोहम्मद इस्माइल.

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