डॉ. नीलम महेंद्र.
दिल्ली की हवा अब सिर्फ प्रदूषित नहीं रही, बल्कि यह हमारे समय की एक चुपचाप फैलती हुई बड़ी आपदा बन चुकी है। यह संकट अचानक पैदा नहीं हुआ है। वर्षों की लापरवाही, गलत नीतियों और अधूरे उपायों का नतीजा है यह हालात। हर साल सर्दियों में जब स्मॉग की मोटी चादर दिल्ली को ढक लेती है, तो कुछ दिनों के लिए चिंता होती है। फिर हालात थोड़े सामान्य दिखते हैं और हम मान लेते हैं कि समस्या खत्म हो गई। लेकिन सच्चाई यह है कि यह समस्या खत्म नहीं होती, बल्कि हमारे शरीर और फेफड़ों में धीरे-धीरे जमा होती रहती है।
दिल्ली के प्रदूषण को समझने के लिए यह मानना जरूरी है कि इसका कोई एक कारण नहीं है। यह कई वजहों से मिलकर बना संकट है। सबसे बड़ा कारण वाहनों से निकलने वाला धुआं है। दिल्ली-एनसीआर में 1.2 करोड़ से ज्यादा वाहन पंजीकृत हैं, जिनमें बड़ी संख्या डीजल वाहनों की है। ये वाहन PM2.5 और नाइट्रोजन ऑक्साइड जैसे जहरीले तत्व हवा में छोड़ते हैं। इसके अलावा हर दिन करीब 10 से 12 लाख वाहन दिल्ली में बाहर से आते हैं। यही वजह है कि सड़क परिवहन दिल्ली के कुल प्रदूषण का लगभग 30 प्रतिशत तक जिम्मेदार है।
दूसरा बड़ा कारण लगातार चल रहा निर्माण कार्य है। फ्लाईओवर, मेट्रो, मकान और बड़े व्यावसायिक भवनों के निर्माण से भारी मात्रा में धूल उड़ती है। यह धूल PM10 का प्रमुख स्रोत है। नियम होने के बावजूद ज्यादातर निर्माण स्थलों पर न तो नियमित पानी का छिड़काव होता है और न ही धूल रोकने के आधुनिक उपाय अपनाए जाते हैं। इसी कारण शहरी धूल दिल्ली के प्रदूषण में 15 से 20 प्रतिशत तक योगदान देती है।
औद्योगिक प्रदूषण को अक्सर कम करके आंका जाता है, जबकि यह भी एक अहम कारण है। दिल्ली और आसपास के इलाकों में हजारों छोटी-बड़ी औद्योगिक इकाइयाँ हैं, जहां कोयला, फर्नेस ऑयल और अन्य प्रदूषणकारी ईंधन इस्तेमाल होते हैं। ईंट भट्टे, अवैध फैक्ट्रियां, प्लास्टिक और कचरे का खुले में जलना हवा को और जहरीला बनाता है। शोध बताते हैं कि उद्योग और ऊर्जा उत्पादन से जुड़े स्रोत लगभग 15 प्रतिशत प्रदूषण के लिए जिम्मेदार हैं।
हर साल पराली जलाने का मुद्दा भी चर्चा में रहता है। अक्टूबर और नवंबर में पराली का योगदान दिल्ली के प्रदूषण में औसतन 20 से 35 प्रतिशत तक होता है। कुछ दिनों में यह 40 प्रतिशत तक भी पहुंच जाता है। लेकिन यह भी सच है कि जब पराली नहीं जलाई जाती, तब भी दिल्ली की हवा साफ नहीं होती। इससे साफ है कि पराली एक कारण है, लेकिन पूरी समस्या का अकेला जिम्मेदार नहीं।
इन सभी कारणों का नतीजा यह है कि दिल्ली दुनिया के सबसे प्रदूषित शहरों में लगातार शामिल रहती है। नवंबर 2024 में तो कुछ इलाकों का AQI 1000 के पार पहुंच गया था, जबकि सामान्य स्तर 0 से 50 के बीच होता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार PM2.5 का सुरक्षित स्तर 5 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर है, जबकि दिल्ली में सर्दियों में यह 150 से 300 तक पहुंच जाता है। यानी सुरक्षित सीमा से कई गुना ज्यादा।
इस प्रदूषण का असर अब सीधे लोगों के स्वास्थ्य पर दिखने लगा है। हर साल लाखों लोग सांस की बीमारियों से जूझ रहे हैं। हार्ट अटैक और स्ट्रोक के मामलों में भी प्रदूषण की भूमिका मानी जा चुकी है। सबसे चिंताजनक असर बच्चों पर पड़ रहा है। हालिया शोध में पाया गया है कि कई बच्चों के फेफड़ों में ऐसे निशान दिखे हैं, जो कोविड के बाद होने वाले नुकसान जैसे हैं। फर्क सिर्फ इतना है कि यहां कारण संक्रमण नहीं, बल्कि जहरीली हवा है।
बच्चों के लिए यह खतरा और भी गंभीर है, क्योंकि उनके फेफड़े और रोग प्रतिरोधक क्षमता अभी विकसित हो रही होती है। प्रदूषित हवा में पलने वाले बच्चों की फेफड़ों की क्षमता 10 से 20 प्रतिशत तक कम हो सकती है। इसका असर उनके शारीरिक विकास, पढ़ाई और भविष्य की क्षमता पर भी पड़ता है।
दिल्ली सरकार ने ग्रैप, ऑड-ईवन, स्कूल बंद करना और निर्माण कार्य रोकने जैसे कदम उठाए हैं। ये जरूरी कदम हैं, लेकिन अधिकतर तात्कालिक हैं। समस्या का स्थायी समाधान तभी होगा जब लंबे समय की ठोस नीति बनाई जाए।
दुनिया के कई शहर इससे सीख दे सकते हैं। लंदन ने 1952 के ग्रेट स्मॉग के बाद कड़े कानून बनाए। बीजिंग ने कोयला संयंत्र हटाए और इलेक्ट्रिक वाहनों को बढ़ावा देकर प्रदूषण 40 प्रतिशत तक कम किया। दिल्ली भी ऐसी नीतियां अपनाकर हालात सुधार सकती है।
इसके साथ ही शहर में हरित क्षेत्र बढ़ाना जरूरी है। यदि किसी शहर का 20 से 25 प्रतिशत हिस्सा हरियाली से ढका हो, तो प्रदूषण काफी हद तक कम हो सकता है। दिल्ली अभी इस मानक से काफी पीछे है। निर्माण और उद्योगों पर तकनीक आधारित सख्त निगरानी, रियल-टाइम डेटा और पारदर्शी व्यवस्था जरूरी है। पराली को जलाने की बजाय उसे ऊर्जा में बदलना भी समाधान का अहम हिस्सा हो सकता है।
दिल्ली-एनसीआर की आबादी करीब 4 से 5 करोड़ है। इतनी बड़ी आबादी अगर लंबे समय तक जहरीली हवा में सांस लेती रही, तो इसका असर पूरे देश की स्वास्थ्य व्यवस्था और अर्थव्यवस्था पर पड़ेगा।
अब दिल्ली का प्रदूषण सिर्फ पर्यावरण की समस्या नहीं रहा। यह राष्ट्रीय स्वास्थ्य संकट बन चुका है। यह उस बच्चे की तकलीफ है जो मास्क पहनकर स्कूल जाता है, उस बुजुर्ग की मजबूरी है जो सुबह की सैर छोड़ देता है और उस परिवार की चिंता है जो घर की खिड़कियां बंद करके भी साफ हवा नहीं पा रहा। अगर आज भी हमने इसे गंभीरता से नहीं लिया, तो आने वाली पीढ़ियां हमें माफ नहीं करेंगी।
(लेखिका पेट्रोलियम एवं प्राकृतिक गैस मंत्रालय की हिंदी सलाहकार समिति की सदस्य हैं)
