मख़दूम जहानियाँ जहाँगश्त अपने मल्फ़ूज़ात के आईने में
मख़दूम जहानियाँ जहाँगश्त अपने मल्फ़ूज़ात के आईने में
मख़दूम जहानियाँ सय्यद जलाल उद्दीन जहाँगश्त बुख़ारी का अस्ल नाम हुसैन था। पाकिस्तान के उच इलाक़ा में 707 हिज्री मुताबिक़ 1307 ईसवी में शब-ए-बरात की रात में पैदा हुए । ये हज़रत जलालउद्दीन सुर्ख़ पोश बुख़ारी के पोते और सय्यद अहमद कबीर के साहिब-ज़ादे थे।
उन्होंने इब्तिदाई ता’लीम अपने आबाई वतन उच में हासिल की और नौ-उमरी में ही अपने चचा सय्यद सदरुद्दीन से बैअ’त हो गए। आ’लम-ए-जवानी में ये मुल्तान तशरीफ़ ले गए और वहाँ उन्होंने अबुल-फ़त्ह रुकनुद्दीन सुह्रवर्दी की निगरानी में उलूम-ए-ज़ाहिरी और बातिनी का दर्स लेना शुरू कर दिया। जामिउल-उलूम में उन्होंने बा’ज़ मौक़ों पर अपने असातिज़ा का ज़िक्र फ़रमाया है और उस में उच के क़ाज़ी बहाउद्दीन का ज़िक्र भी किया हैं जिनसे उन्होंने इब्तिदाई ता’लीम हासिल की थी। अबुल-फ़त्ह रुकनुद्दीन ने अपने पोते शैख़ मूसा और मौलाना मजदुद्दीन को बहाउद्दीन के इंतिक़ाल के बा’द उनका उस्ताद मुक़र्रर किया । हिदाया का दर्स उन्होंने मौलाना मजदुद्दीन से ही हासिल किया था।
उनकी ज़िंदगी का ज़्यादा-तर हिस्सा हुसूल-ए-इल्म और सैर-ओ-सियाहत में गुज़रा। मक्का मुकर्रमा में क़ियाम के दौरान उन्होंने बहुत सा वक़्त इमाम अबदुल्लाह याफ़ई की सोहबत में गुज़ारा उन्होंने ज़माना-ए-तालिब-इल्मी में हदीस और तसव्वुफ़ की जो किताबें मुल्तान और उच में पढ़ी थीं मक्का और मदीना में क़ियाम के दौरान उन सारे उलूम की तज्दीद की ख़ातिर दुबारा दर्स लिया और उनमें सनद हासिल किया। अद्दुर्रुल-मंज़ूम के मुताले’ से मा’लूम होता है कि मख़दूम जहानियाँ ने हिजाज़ में सहीह-बुख़ारी, सहीह मुस्लिम, मुवत्ता इमाम मालिक, जामे’-ए-तिरमिज़ी, मुस्नद अहमद बिन हंबल, सुनन-ए-बैहक़ी और अल-मुस्तद्रक का गहरा मुतालेआ’ किया था। उन्होंने शहाबुद्दीन सुह्रवर्दी की अ’वारिफ़ु-लमआ’रिफ़ हरम-ए-नबवी में शैख़ अबदुल्लाह मतरी से पढ़ी। मख़दूम जहानियाँ फ़रमाते हैं कि अ’वारिफ़ु-लमआ’रिफ़ का जो नुस्ख़ा उनके ज़ेर-ए-मुतालिआ’ था वो शैख़ुश-शुयूख़ की नज़र से भी गुज़रा था। हरमैन-ए-शरीफ़ैन के क़ियाम के दौरान उन्हें ये मा’लूम हुआ कि इराक़ के एक गावँ में शहाबुद्दीन सुह्रवर्दी के एक ख़लीफ़ा शैख़ महमूद तस्तरी मुक़ीम हैं और उन्होंने अ’वारिफ़ु-लमआ’रिफ़ शैख़ुश-शुयूख़ से म्जलिस दर मज्लिस पढ़ी थी । उन्होंने फ़ौरन उस गांव के सफ़र का इंतिज़ाम किया और जानिब-ए-मंज़िल गाम-ज़न हो गए और उनकी ख़िदमत-ए-मुबारका में हाज़िर हो कर अ’वारिफ़ुल-मआ’रिफ़ को लफ़्ज़न लफ़्ज़न उनसे सुना और उस की तश्रीह-ओ- तब्सिरा से भी मुस्तफ़ीज़ हुए। मख़दूम जहानियाँ फ़रमाते हैं कि उस वक़्त शैख़ महमूद तस्तरी की उम्र 132 साल थी और उनकी सेहत का आ’लम ये था कि वो अ’सा की मदद से थोड़ा बहुत चल फिर लेते थे।
मख़दूम जहानियाँ ने कुछ अ’र्सा दिल्ली में हज़रत शैख़ नसीरुद्दीन चिराग़ दिल्ली की ख़िदमत में भी गुज़ारा और उनकी निगरानी में मनाज़िल-ए-सुलूक तय किए। हज़रत मख़दूम के दिल्ली आने का ग़रज़ बादशाह-ए-वक़्त से मिलने का होता था और इस वसीले से वो हज़रत शैख़ नसीरुद्दीन चिराग़ दिल्ली से मुलाक़ात का शरफ़ भी हासिल कर लेते और उनकी मजालिस की ज़ीनत भी बनते थे। सुल्तान फ़िरोज़ शाह तुग़लक़ को मख़दूम जहानियां से बहुत अ’क़ीदत थी जब ये दिल्ली का रुख़ करते तो सुल्तान फ़िरोज़ शाह उनके हालात-ए-सफ़र का जायज़ा अपने दरबारियों से लेते रहते और जब आप दिल्ली पहुंचने वाले होते तो सुल्तान फ़िरोज़ शाह अपने लश्कर के साथ शहर से बाहर निकल कर उनका इस्तिक़बाल करता और बड़ी इज़्ज़त और अ’क़ीदत के साथ उन्हें शहर में लाता। मख़दूम साहिब सात से दस दिन के वक़्फ़े से सुल्तान से मिलने जाते; रास्ते में ज़रूरत-मंद अपनी अ’र्ज़ीयां उनके पालकी में डाल देते और ये बादशाह से मुलाक़ात के वक़्त सलाम-ओ-दुआ’ के बा’द सबसे पहले तमाम अ’र्ज़ियाँ बादशाह के सामने रख देते और जब तक सारे अ’र्ज़ियों के जाइज़ मुतालबात पूरे ना हो जाते मख़दूम जहानियाँ सुल्तान से मुलाक़ात की कोई ग़रज़ पेश ना करते।
शाही ख़ानदान से उनके गहरे मरासिम थे और हर एक छोटे बड़े, उमरा वुज़रा और शहज़ादे उनकी ता’ज़ीम बजा लाते थे। एक रोज़ शहज़ादा महमूद ख़ान मख़दूम जहानियाँ की ख़िदमत में हाज़िर हुआ तो उन्होंने उसे टोपी पहनाई और कुछ तबर्रुक दिया और रुख़्सती के वक़्त फ़रमाया कि सुल्तान को उनका सलाम पहुंचाए। दो रोज़ बा’द शहज़ादा ज़फ़र ख़ान, उनका बेटा, शहज़ादा तुग़लक़ शाह और चंद अराकीन-ए-सल्तनत सुल्तान का पैग़ाम लेकर मख़दूम जहानियाँ की ख़िदमत में हाज़िर हुए और उनसे ये इल्तिजा की कि सुल्तान की ये ख़्वाहिश है कि जनाब शाही महल में तशरीफ़ फ़रमाएँ। मख़दूम जहानियाँ उसी वक़्त उनके साथ चलने को तैयार हो गए। शहज़ादा तुग़लक़ शाह ने उनका हाथ पकड़ कर उनको पालकी में सवार किया और शाही महल में लाए। क़ियाम के दौरान एक दिन सुल्तान फ़िरोज़ शाह का पोता शहज़ादा मुबारक ख़ान मख़दूम जहानियाँ की ख़िदमत में हाज़िर हुआ । उस के सर पर एक ना-मशरूअ’ टोपी थी । मख़दूम जहानियाँ ने फ़ौरन ए’तराज़ किया । इस नसीहत से ये पता चलता है कि मख़दूम जहानियाँ बड़े से बड़े शख़्स के सामने भी अम्र बिल-मा’रुफ़ और नह्-य अ’निल मुन्कर से नहीं चूकते थे।
जामि-उल-उलूम के मुताबिक़ एक मर्तबा मख़दूम जहानियाँ अपने मुरीदीन को ख़िताब कर रहे थे उस वक़्त उन्होंने अपनी अ’क़ीदत पर बात की और कहा कि उनके आबा-ओ-अज्दाद हनफ़ी-उल-मसलक थे ।
जहाँ तक मज्लिस-ए-समाअ’ की बात है तो उनका अ’क़ीदा था चार इमाम में से हर एक के यहाँ सिवाए निकाह की मज्लिस के दफ़ बजाना हराम है। इसी तरह जंग और क़ाफ़िले की रवानगी के वक़्त तबल बजाना जाइज़ है इन दो मौक़ों के अ’लावा तबल बजाना जाइज़ नहीं है। जामिउल-उलूम के मुरत्तिब तहरीर फ़रमाते हैं कि एक शख़्स ने मख़दूम साहिब की मौजूदगी में नय बजाना शुरू किया तो मौसूफ़ ने उस से फ़रमाया कि ये फ़े’ल जाइज़ नहीं है। इसी तरह मख़दूम जहानियाँ गाना सुनना जाइज़ नहीं समझते थे। सय्यद अ’लाउद्दीन तहरीर फ़रमाते हैं कि मख़दूम जहानियाँ बग़ैर मज़ामीर के क़व्वाली सुनने के क़ाइल थे और कभी कभी सुन भी लिया करते थे।
ख़ज़ाना-ए-जवाहर-ए-जलालिया में मख़दूम जहानियाँ फ़रमाते हैं कि जो सुफ़िया समाअ’ के क़ाइल हैं उन्होंने उस के लिए बड़ी बड़ी शराइत आ’इद की हैं। जिस तरह नमाज़ बे-वक़्त और बे-वज़ू, रोज़ा बे-ईमसाक, औरत बे-निकाह, ज़राअ’त बग़ैर तुख़्म, दरख़्त बे-मेवा, ख़ाना बे-दर और मुर्ग़ बे-पर नहीं होते ऐसे ही समाअ’ बग़ैर शराइत नहीं होती ।
अगर कोई शख़्स अपनी उम्र का कोई हिस्सा समाअ’ में सर्फ़ करना चाहे तो उसे चाहिए कि पहले तीन दिन तय का रोज़ा रखे या’नी इस दौरान में ना कुछ खाए और ना पिए। अलबत्ता वो एक क़तरा पानी के साथ रोज़ा इफ़्तार कर सकता है। इन अय्याम में वो किसी के साथ बात ना करे और ख़ल्वत में बैठ कर मुराक़बा में मशग़ूल रहे। मख़दूम जहानियाँ फ़रमाते हैं कि बा’ज़ बुज़ुर्गों ने साहिब-ए-समाअ’ के लिए पाँच या सात दिन का तय का रोज़ा तज्वीज़ किया है। ये रोज़ा पूरा करने के बा’द वो किसी अ’ज़ीज़ या दरवेश से ग़ज़ल सुने। क़व्वाल किसी हाल में भी ना-आश्ना या बेगाना ना हो। समाअ’ सुनते वक़्त वो अपने दिल में शैतानी वस्वसा ना लाए। समाअ’ का वक़्त बड़ा नाज़ुक होता है। इसलिए बड़ी एहतियात बरतनी चाहिए। अगर समाअ’ में हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का ज़िक्र ना हो तो कुदूरत बढ़ने का इमकान होता है। समाअ’ के बाद खाना तनावुल ना करे। खाना पीना अह्ल-ए-ग़फ़लत की आ’दत है। अगर समाअ’ की हाजत हो तो उसे आ’दत ना बनाए बल्कि एक दो या तीन हफ़्ते के बा’द समाअ’ सुने।
इसी तरह मख़दूम जहानियाँ का अ’क़ीदा हजामत बनवाने के मुतअ’ल्लिक़ भी है। जामिउल-उलूम में फ़रमाते हैं कि अगर कोई शख़्स अपने सर पर उस्तुरा फिरवाना चाहे तो उसे चाहिए कि पहले अपनी बीवी से इजाज़त हासिल कर ले। अगर वो शादी-शुदा ना हो तो अपनी वालिदा से इजाज़त ले ऐसा ना हो कि उस की ये शबीह उस की बीवी या वालिदा को अच्छी ना लगे। इसी तरह ख़ज़ाना-ए-जवाहर-ए-जलालिया में एक जगह हल्क़ (हजामत) करवाने, मूँछें बढ़ाने, नाख़ुन काटने और आईना देखने के मुतअ’ल्लिक़ गुफ़्तुगू करते हुए फ़रमाते हैं कि महलूक़ होना सुन्नत है इस से ग़ुस्ल में शुबहा बाक़ी नहीं रहता। एक अंदाज़े के मुताबिक़ मख़दूम जहानियाँ ने अ’रब-ओ-इराक़ की लगभग चालीस बरस तक सियाहत की थी। इसलिए अपने मुशाहिदे की बुनियाद पर फ़रमाते हैं कि अ’रब-ओ-इराक़ में लोग ज़ुल्फ़ वाले को मुख़न्नस समझते हैं।अपने मुरीदों को मज़ीद ताकीद के लिए फ़रमाया कि सबसे पहले शैतान ने ज़ुल्फ़ें रखीं , उस के बा’द क़ौम-ए-लूत ने ये फ़ैशन अपनाया अब ये मुल्हिदों का शिआ’र है।
मख़दूम जहानियाँ का मा’मूल था कि सर्दी में एक-बार और गर्मी के मौसम में सर पर दो बार उस्तुरा फिरवाते थे। सुल्तान फ़िरोज़ तुग़ल्लुक़ ने हजामत बनवाना शुरू कर दिया। शायद उसे उस की तर्ग़ीब दिलाने में मख़दूम जहानियाँ का हाथ था या वो उनकी अ’क़ीदत में ख़ुद हजामत बनवाता था।
मशहूर मोअर्रिख़ शम्सुद्दीन अ’फ़ीफ़ का अपनी तालीफ़ तारीख़-ए-फ़िरोज़ शाही में सुल्तान फ़िरोज़ शाह तुग़लक़ के महलूक़ होने के मुतअ’ल्लिक़ ये जुमला काफ़ी मा’नी-ख़ेज़ है:
तर्जुमा: ज़ाहिर है कि बादशाह को ये तमाम बरकात उलमा-ओ-मशाइख़ की मुहब्बत और पैरवी से हासिल हुईं।
मख़दूम जहानियाँ ने 1384 ईसवी में 77 साल की उम्र में वफ़ात पाई और उनके भाई हज़रत सदरुद्दीन अबुल-फ़ज़्ल मुहम्मद उल-मारूफ़ ब-राजू क़त्ताल उनके सज्जादा-नशीँ हुए। मख़दूम जहानियाँ ने ब-क़ौल हज़रत शाह-आ’लम बुख़ारी 2,01,173 अफ़राद को बैअ’त किया ।उनमें से 12,750 मुरीदों को ख़िलाफ़त अ’ता फ़रमाई ।उनके ख़ुलफ़ा में उनके भाई राजू क़त्ताल के अ’लावा सय्यद सिकन्दर तिरमिज़ी, शैख़ क़वामउद्दीन अब्बासी लखनवी और अख़ी जमशेद राजगीरी ख़ास तौर पर मा’रूफ़ हैं।
मख़दूम जहानियाँ जहाँ गश्त के मुरीदीन ने उन मल्फ़ूज़ात को तर्तीब दिया जिसमें जामिउल-उलूम, सिराजुल-हिदाया, ख़ज़ाना-ए-जलाली, जवाहर जलाली, मज़हर-ए-जलाली और मनाक़िब-ए-मख़दूम जहानियाँ बहुत अहम हैं।
मल्फ़ूज़ात क़लम-बंद करने का रिवाज दर-हक़ीक़त सुफ़िया-ए-किराम के यहाँ ता’लीम-ओ-तर्बीयत एक रस्मी तरीक़ा है। मल्फ़ूज़ात दो तरह से क़लम-बंद किए जाते हैं। पहला तरीक़ा ये है कि मुरीद मुर्शिद के हर एक वा’ज़ को जो अपने मुरीदों और अपने अ’क़ीदत-मंदों को किया करते थे उस को क़लम-बंद करते थे लेकिन सभी मुरीद और अक़ीदत-मंद तो मुर्शिद के वा’ज़ को क़लम-बंद नहीं करते बल्कि बग़ौर समाअ’त करते हैं। वा’ज़ के बा’द कोई एक या कुछ मख़सूस मुरीदीन जिनको अपने मुर्शिद से बे-इंतिहा अ’क़ीदत और मुहब्बत होती है वो अपने मुर्शिद के हर एक लफ़्ज़ और बात को ज़हन-नशीँ कर लेते हैं और उस को क़लम-बंद कर लेते हैं। कभी कभी मुरीद अपने लिखे हुए मल्फ़ूज़ को अपने मुर्शिद से इस्लाह भी कराते हैं। जिस तरह ख़्वाजा गेसू दराज़ के मल्फ़ूज़ात जवामेउल-कलिम को तर्तीब देने के बा’द गेसू दराज़ के साहिबज़ादे सय्यद मुहम्मद अकबर हुसैनी ने इस्लाह के लिए अपने वालिद के सिपुर्द किया। मल्फ़ूज़ात को पढ़ने के बा’द गेसू दराज़ ने फ़रमाया इस में किसी तरह की इस्लाह की ज़रूरत नहीं है अगर मैं भी लिखता तो यही लिखता मज्लिस के ए’तबार से मल्फ़ूज़ात को तर्तीब देते ।दूसरा तरीक़ा-ए-कार यह है कि मुरीद अपने मुर्शिद के पास बैठ कर कोई उनवान शुरू कर देते हैं और शैख़ उस उनवान पर अपना इज़हार-ए-ख़याल करने लगते हैं। कुछ ज़हीन और ज़ी-इल्म मुरीद इस गुफ़्तुगू को नक़्ल कर लेते, बा’ज़ मुरीद इस तहरीर को अपने मुर्शिद को दिखा लेते हैं। इस तरह मल्फ़ूज़ात की इस्लाह भी हो जाती है और इस तहरीर को दर्जा-ए- इस्तिनाद भी हासिल हो जाता है। हज़रत मख़दूम जहानियाँ जहाँ गशत बड़े साहिब-ए-इल्म-ओ-फ़ज़्ल सूफ़ी शैख़ थे। इस्लामी उलूम में उनको मुमताज़ मक़ाम हासिल था। उनके मल्फ़ूज़ात मज़हब-ओ-तसव्वुफ़ के दाइरातुल-मआ’रिफ़ का दर्जा रखते हैं। हज़रत मख़दूम के मल्फ़ूज़ात का ज़िक्र कुछ इस तरह है।
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~ शारिद अंसारी
Article forwarded by S M Islam.
Lucknowi