आषाढ़ की पूर्णिमा के दिन को गुरु पूर्णिमा के रूप में मनाया गया
प्रति वर्ष आषाढ़ की पूर्णिमा के दिन को गुरु पूर्णिमा के रूप में मनाया जाता है। मान्यता है कि इसी दिन महाभारत और पुराण के रचयिता महर्षि वेदव्यास जी का जन्म हुआ था। यह तिथि आषाढ़ माह के शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा को मानी जाती है। इस दिन महर्षि वेदव्यास जी के साथ ही अपने गुरुजनों की पूजा करने की परंपरा है।
जो मिस्त्री का काम सिखाए वह भी गुरू, जो बाल काटने सिखाए, कपड़ा सिलना सिखाए, जो खाना बनाना सिखाए वह भी गुरु है। माता पिता भी गुरु हैं, अध्यापक शिक्षा का महत्व बताते हैं वे भी गुरु हैं। लेकिन आध्यात्मिक गुरु अन्य ही है। जिसका पूर्ण तत्त्वदर्शी सन्त होना पहली शर्त है।
भारतीय संस्कृति आध्यात्मिक संस्कृति है। अध्यात्म का अर्थ है आत्मा का अध्ययन और संस्कृति का अर्थ है, परिष्कार, शुद्धिकरण। स्वयं को परिष्कृत करना। अर्थात् आत्मा पर जमे हुए सांसारिक मैल को अंतर्मन की आँखों से देखकर उसे खुरच कर, साफ करना तदुपरान्त आत्मा को उसके मूल स्वरूप में लाना आध्यात्मिक संस्कृति है। क्योंकि जब तक आत्मा पर सांसारिक काम, क्रोध, मद, लोभ, अहम, ईष्र्या, वासना का मैल एकत्रित रहेगा तब तक आत्मा अपने मूल स्रोत परमात्मा से आनंद का प्रकाश प्राप्त करने में असमर्थ ही रहेगी।
इस धरती पर हर समय कोई न कोई पूर्णसतगुरु अवश्य मौजूद होते हैं, जो हमें अपने अंतर में मौजूद प्रभु-सत्ता के साथ जुड़ने में मदद करते हैं। प्रत्येक युग में ऐसे संत-महापुरुष आते हैं जो हमारी आत्मा को आंतरिक यात्रा पर ले जाने में समर्थ होते हैं। महापुरुषों ने हमें यही बताया है कि प्रभु की सत्ता किसी न किसी मानव शरीर के माध्यम से कार्य करती है। मनुष्य दूसरे मनुष्य से ही सीखता है। संत-महापुरुष इस दुनिया में इसलिए आते हैं ताकि हमारे स्तर पर आकर हमसे बातचीत कर सकें, आंतरिक अनुभव पाने की विधि के बारे में हमारी भाषा में हमें समझाएं तथा व्यक्तिगत स्तर पर हमें उसका अनुभव भी दे सकें। केवल बातें करने से या पढ़ने से हम अध्यात्म नहीं सीख सकते। यह केवल व्यक्तिगत अनुभव से ही सीखा जा सकता है और वो अनुभव हमें केवल एक पूर्णसतगुरु ही प्रदान कर सकता है।
सतगुरु दया से भरपूर होते हैं वे हमें तकलीफ में नहीं देख सकते। सतगुरु हमें कर्मों के कीचड़ से दूर रहने की शिक्षा देने के लिए इस संसार में आते हैं। वे चाहते हैं कि हम कर्मों के चक्र से बाहर निकलें, जिसमें उलझकर हम बार-बार इस संसार में आते हैं। वे चाहते हैं कि हम अपने सच्चे पिता के घर वापस लौटें, जहां किसी प्रकार की तकलीफ या मृत्यु नहीं है।
यदि हम इस मानव चोले के उद्देश्य को पूरा करना चाहते हैं और अपनी आत्मा का मिलाप परमात्मा में करवाना चाहते हैं, तो हमें एक पूर्ण सतगुरु के चरण-कमलों में आना ही होगा।
वैश्विक प्रसिद्धि को प्राप्त करते हुए भारतीय जनमानस के हृदय में बैठे हुए सद्गुरु हो हम भूल नहीं सकते। आज भारत के कोने-कोने में ओशोधारा के शिष्यों का फैलाव एवं कार्यक्रमों द्वारा प्रेरित जीवन की सार्थकता का पाठ साधना द्वारा दिया जा रहा है। आपको भी इस पुण्य यज्ञ में आहुत के लिए आमंत्रण है। भागीदार बनकर मानविक जीवन की सार्थकता हासिलp करें।