भाजपा का तिरंगा प्रेम तारीख़ के आईने में
कलीमुल हफ़ीज़ :
हम भारत के लोग इमरजेंसी के बाद फसादात के लंबे काल को देखते हुए बाबरी मस्जिद की शहादत का काल, उसके बाद फिर फसाद का काल, फिर गुजरात 2002 काल, उसके बाद मुस्लिम नौजवानों की गिरफ्तारी का काल और उसके बाद डिजिटल काल होते हुए अब अमृत काल में प्रवेश कर चुके हैं। अमृत काल में हमारी सरकार ने हर घर तिरंगा मुहिम चलाने का फैसला किया है।
सिर्फ यूपी में तिरंगा खरीदने के लिए सरकार पर 40 करोड़ का बोझ आएगा और एक अंदाज़े के मुताबिक़ उसको फहराने के लिए 200 करोड रुपए ख़र्च होंगे। बाकी रियासतों में इसी तरह से आप सोच सकते हैं, जबकि उत्तर प्रदेश में सरकारी स्कूलों में सरकार ने भोजन का पैसा नहीं दिया है, फ़रमान आया है कि प्रिंसिपल इसका इंतज़ाम ख़ुद करें। इसी तरह से बच्चों को ड्रेस के जो पैसे मिलते थे वह भी नहीं मिले और 2 साल से ₹450 जो प्राइवेट स्कूलों के बच्चों को दिया जाता था, वह भी नहीं मिला है। आप सोच सकते हैं, जनता की ज़रूरत क्या है और सरकार की प्राथमिकता क्या है।
बात तिरंगे की, किसी भी मुल्क के लिए दो चीज़ें सबसे अहम होती हैं, एक उसका संविधान दूसरा उसका झंडा। मुल्क का इंटरनल और एक्सटर्नल दोनों निज़ाम संविधान से चलता है, लेकिन उसकी अज़मत उसका परचम होता है। परचम की तारीख़ कोई नई नहीं है, बल्कि दुनिया में जितनी जंगें हुईं, अक्सर उनमें हम परचम को सब से आगे पातें हैं, जिसे अरबी भाषा में अलम भी कहा जाता है।क़ौमें हमेशा परचम के ज़रिए से ही अपनी शान और शौकत का इज़हार करती आयी हैं। इस्लामी तारीख़ भी इससे अछूत नहीं रही, फतेह मक्का जिसे अल्लाह ने फ़तहे मोबीन कहा, वहां भी परचम का ज़िक्र मौजूद है।
मालूम यह हुआ कि परचम की तारीख़ नई नहीं है, इसलिए हमारा देश कैसे इससे अछूत रहता। अब सवाल यह पैदा होता है कि भारत में परचम की ज़रूरत कब और कैसे हुई? इसका जवाब यह है कि 1921 में महात्मा गांधी जी ने इंडियन नेशनल कांग्रेस के अधिवेशन में क़ौमी परचम (राष्ट्रीय झंडा) की ज़रूरत का इज़हार किया।
झंडे के डिज़ाइन को लेकर सुरैय्या तय्यब जी और पिंगली वेंकैया का नाम आता है। कांग्रेस नेता नवीन जिंदल की NGO फ्लैग फाउंडेशन ऑफ़ इंडिया के अनुसार क़ौमी परचम सुरैय्या तय्यब जी का ही डिज़ाइन है जिसे संविधान सभा ने क़ौमी परचम के लिए मंजूर किया था। इस विषय में हैदराबाद के एक इतिहासकार ए पांडुरंग रेड्डी ने क़ौमी परचम के डिज़ाइनर के तौर पर पिंगली वेंकैया का नाम खारिज कर सुरैया तैयबजी के नाम को आगे किया।
रेड्डी इस संदर्भ में ब्रिटिश लेखक ट्रेवर रॉयल की किताब “The last days of the Raj” का हवाला देते हैं- “भारतीय इतिहास के साथ चलने वाले विरोधाभासों में से एक है कि राष्ट्रीय ध्वज को बदरुद्दीन तैयब जी ने डिजाइन किया था...नेहरू की कार पर उस रात जो ध्वज फहरा रहा था उसे तैयबजी की पत्नी सुरैय्या तय्यब जी ने ख़ासतौर पर डिज़ाइन किया था.”
संसदीय रिकॉर्ड से पता चलता है कि सुरैया तैयब जी का नाम दरअसल फ्लैग प्रेज़ेंटेशन कमेटी के सदस्यों में शामिल था, जिन्होंने 14 अगस्त 1947 को क़ौमी परचम पेश किया था। तारीख़ के पन्ने हमें यह भी बताते हैं कि गांधीजी चाहते थे कि झंडे के बीच में चरखे को शामिल किया जाए। गांधीजी की ख़्वाहिश थी कि झंडे में तीन रंगों को शामिल किया जाए, लाल, सफ़ेद और हरा। 1931 में कांग्रेस की फ़्लैग कमेटी ने तिरंगे में कुछ तब्दीलियां कीं, गाँधी जी की कहने पर लाल रंग को केसरिया से बदल दिया गया और रंगों की तरतीब भी बदली गयी, जिसे अब हम देख रहे हैं।
22 जुलाई 1947 को जवाहर लाल नेहरू ने संविधान सभा में क़ौमी परचम की तजवीज़ पेश की, इस तारीख़ी क़रारदाद को पेश करते हुए उन्होंने कहा, सदरे मोहतरम! मुझे यह क़रारदाद पेश करते हुए बेहद ख़ुशी है। हम आशा करते हैं कि भारत का क़ौमी परचम एक उफ़क़ी तिरंगा होगा, जिस में गहरा ज़ाफ़रानी, सफेद और हरा रंग होगा। तिरंगे के बारे में फैलाए गई सभी अप़वाहों को नेहरू ने संविधान सभा में मुस्तरद कर दिया था।
संविधान सभा में नेहरू की तक़रीर का ज़िक्र सीनियर सहाफ़ी और लेखक प्यूष बाबले ने अपनी किताब ‘नेहरू के अफ़साने और सच्चाईयाँ” में कहा है कि नेहरू ने कहा था, यह एक ऐसा झंडा है जिसके बारे में मुख़्तलिफ़ बातें कही जाती हैं। बहुत से लोगों ने इस की तस्वीर ग़लत पेश की है। वह सिर्फ़ मज़हब की नज़र से देखते और समझते हैं, लेकिन मैं यह कह सकता हूं कि जब झंडा तैयार किया गया तो इसमें कोई भी मज़हबी नज़रिया शामिल नहीं था।
हमने एक ऐसे झंडे के बारे में सोचा जो पूरे मुल्क की रूह को ज़ाहिर करता है और उस के हर हिस्से से अपनी तहज़ीब का इज़हार करता है। एक मिली जुली संस्कृति और रिवायत को अपनाएं, जो हज़ारों साल के सफ़र के ज़रिए हिंदुस्तान में परवान चढ़ी है। झंडा बहुत ख़ूबसूरत होगा, दिल और दिमाग़ से जुड़ी हर चीज़ की अलामत होगा, जिसने इंसानों को इज़्ज़त बख़्शी है।
तारीख़ हमें बताती है कि 1929 में लाहौर अधिवेशन में कांग्रेस ने तय किया कि अगले साल से हम हर घर 26 जनवरी को तिरंगा फहराएंगे। तिरंगा के दीवाने अगले साल यानी 26 जनवरी 1930 को तिरंगा लेकर निकल पड़े, तो उन्हें दोहरे ज़ुल्म का निशाना बनना पड़ा। एक तरफ़ अंग्रेज़ और दूसरी तरफ मैसूर का राजा जो सावरकर का दोस्त और हिन्दू महासभा का फाइनेंसर था उसने 40 तिरंगा प्रेमियों को शहीद कर दिया।
आरएसएस विचारक सावरकर ने उनकी शहादत का जश्न मनाते हुए कहा कि Pseudo nationalists को सबक़ सिखाया गया। डा हेडगवार द्वारा एक सर्कुलर जारी किया गया कि रविवार 26 जनवरी को शाम 6 बजे हम तिरंगे की जगह भगवा फहराएंगे और जब भी संघियों को मौक़ा मिला तो उन्होंने ऐसा ही किया भी। हाल ही में राजस्थान में कोर्ट पर भी वह भगवा फहराने से बाज़ नहीं आये।
17 जुलाई 1947 को आर एस एस की तरफ से कहा गया कि हम इस बात से संतुष्ट नहीं हैं कि राष्ट्रीय ध्वज को सभी दलों द्वारा स्वीकार किया जाना चाहिए। झंडा राष्ट्र प्रतीक है, मुल्क में केवल एक राष्ट्र है, हिंदू राष्ट्र। लगातार पांच हज़ार वर्षों के अपने इतिहास के साथ, ध्वज केवल उस राष्ट्र का प्रतिनिधित्व करना चाहिए। सभी दलों की इच्छाओं को पूरा करने वाला ध्वज चुनना हमारे लिए संभव नहीं है। हम इस तरह से ध्वज नहीं चुन सकते, जिस तरह एक दर्ज़ी को कपड़ा या कोट तैयार करने को देते हैं।
बीजेपी आरएसएस का पोलिटिकल विंग है, 12 जुलाई 2013 को गुजरात के मुखिया के तौर पर मोदी जी ने स्वीकारा था कि वह एक हिंदू राष्ट्रवादी हैं, आरएसएस के सदस्य हैं और गुरू गोलवलकर के शिष्य हैं, तो आप ख़ुद सोच लीजिये कि इन का तिरंगा प्रेम कैसा होगा? 14 जुलाई 1946 को गुरु पूर्णिमा के अवसर पर गुरु गोलवलकर क्या कहते हैं, हमें पक्का यक़ीन है कि भगवा हमारी अज़ीम संस्कृति का नुमाइंदा है, यह ईश्वर का प्रतीक है, एक दिन पूरा देश भगवा को सलामी देगा।
आज़ादी से 1 दिन पहले 14 अगस्त 1947 को आर एस एस की तरफ़ से कहा गया कि जो लोग क़िस्मत के बदौलत सत्ता तक पहुंचे हैं, वह भले ही हमारे हाथों में तिरंगा दे दें, लेकिन इसे हिंदुओं के ज़रिए न इज़्ज़त दी जायेगी और ना ही अपनाया जा सकेगा। 3 की गिनती अपने आप में अपशकुन है, ऐसा झंडा जिसमें तीन रंग हों, वह मुल्क के लिए बुरा और नुकसानदेह है।
चूँकि सावरकर तिरंगे को खादी से बनाए जाने के भी ख़िलाफ़ थे, शायद इसीलिए हमारी सरकार ने फ़्लैग कोड में तबदीली कर दी है जिसे अब पॉलिस्टर का बनाया जा सकेगा, जबकि इस से पहले ये सिर्फ़ कर्नाटक के खादी ग्राम उद्योग से ही बन सकता था। समझिए भाजपाइयों का राष्ट्रवाद, पहले उन्होंने अपने ही मेक इन इंडिया और आत्म निर्भर भारत का मज़ाक़ उड़ाया और अब अगर तिरंगे को चाइना से इम्पोर्ट करते हैं तो मतलब साफ़ है कि जो दुश्मन हमारी ज़मीन पर बैठा है उसी के हाथों को मज़बूत कर रहे हैं। यही है इनका राष्ट्रवाद और तिरंगा प्रेम।
हमारे लिए ज़रूरी है कि हम तिरंगे की तारीख़ को जानें और उसकी अज़मत को पहचानते हुए हर मौक़े पर उस को फहराएं। अगर हमें वह लोग तिरंगा फहराने की नसीहत देंगे, जिन्होंने अपने हेडक्वार्टर पर 52 साल तक तिरंगा नहीं फहराया और जब 2001 में तीन नौजवानों ने नागपुर में उनके हेडक्वार्टर पर तिरंगा फहराने की कोशिश की तो उनके ख़िलाफ़ मुक़दमा कराया, तो हमें ऐसे लोगों को आईना दिखाना है और उनको उनके राष्ट्रवाद की सच्चाई सबूतों के साथ बतानी है।
उन्हें यह भी बताना है कि हेडगेवार जब जेल गए थे तो वह कांग्रेस के रुक्न थे और सावरकर माफ़ी मांग कर वीर बन गए। हमें यह याद रखना है कि जब भी गुलिस्तां को ख़ून की ज़रूरत पड़ी तो सब से पहले हमारी ही गर्दन कटी, लेकिन हमने अंग्रेज़ों से माफ़ी नहीं मांगी।
बतख़मियां अंसारी, जिन्होंने अंग्रेज़ों के ज़ुल्म से बर्बाद होना क़ुबूल किया, लेकिन गांधी को ज़हर देना क़ुबूल नहीं किया। ब्रिगेडियर उस्मान, जिन्होंने एक सामान्य से कमांडर के रूप में जीवन स्वीकार किया, लेकिन जिन्ना के प्रस्ताव को ख़ारिज कर दिया, यह हमारा राष्ट्र वाद है। हमें दुनिया को बताना है और उसके अनुसार अपना जीवन जीना है, लेकिन सवाल यह है कि हर घर तिरंगे का सपना कैसे पूरा होगा, जब सबके पास घर है ही नहीं, बहरहाल इसका जवाब सरकार को देना ही होगा।
कलीमुल हफ़ीज़, नई दिल्ली