याद रहे जब तुम्हें भी बुढ़ापा आएगा
remember when you get old
मानवता की असली पहचान उसका दूसरों के साथ प्रेम, सदभावना व आत्मीयता से व्यवहार करना है. परन्तु जब बात बुजुर्गों की होती है तो हम अपने इस व्यवहार को क्यों भूल जाते हैं? जो माता-पिता अपना पूरा जीवन हमें सफल बनाने और लालन-पालन करने में समर्पित करते हैं और जब दायित्व निभाने का हमारा समय आता है तो हम अपने दायित्व से मुँह क्यों मोड़ लेते हैं ? हम क्यों यह भूल जाते हैं कि अगर आज हम अपने बुजुर्गों के साथ ऐसा अमानवीय व्यवहार कर रहे हैं तो हमारी भावी पीढ़ी हमारे साथ न जाने कैसा व्यवहार करेगी?
आज आपको अपने जीवन का आँखों देखा सच बता रही हूँ. हमारे साथ ही पड़ोस में वर्मा जी का परिवार रहता था. वर्मा जी के परिवार में उनकी पत्नी मधु, दो बेटे–बहुएं, पोते-पोतिये व दादी रहती थी. वर्मा जी स्वयं रेलवे मे उच्च पद पर आसीन थे और उनके बेटे भी सरकारी कर्मचारी थे. आर्थिक रूप से सुसम्पन्न इस परिवार में किसी चीज़ की कमी न थी. अगर कमी थी तो शायद सिर्फ अच्छी सोच व संस्कारों की.
परिवार में जहाँ प्रत्येक सदस्य एशो आराम की जिन्दगी व्यतीत कर रहा था वहाँ दादी की किस्मत में घर के पिछले बरामदे में बना कच्चा –पक्का कमरा ही था. जिसमें दीवारों पर सीलन ,बदबू व गंदगी से दम घुटता था. दादी के पति रमेश जी की मृत्यु के बाद उनकी पैंशन से ही दादी अपना गुजर करती थी परन्तु दादी के नाम जमीन –जयदाद काफी थी. दादी ने मुझे बताया था कि उन्हें इस कोठरी में भी सिर्फ इसलिए रखा गया है क्योंकि सभी की नजर उनकी जायदाद पर है और अगर उनके पास अच्छी खासी जयदाद न होती तो आज वे सडकों पर या किसी ओल्ड ऐज होम में अपना जीवन बिता रही होती.
दादी सारा दिन चारपाई पर बैठी अपनी अंतिम सांसों के लिए भगवान से दुहाई मांगती रहती थी. चूंकि यह जिंदगी भी किसी नरक भोगने से कम न थी. अक्सर वर्मा जी की घर से दादी की रोने की आवाजें आया करती थी क्योंकि बात-बात पर दादी से मारपीट करना उनके लिए आम बात थी. यहाँ तक कि दादी को खाने के नाम पर सूखी व मोटी रोटी और पानी जैसी दाल ही नसीब होती थी. परन्तु ममता की प्रतिमूर्ति दादी उसे भी राजभोग समझकर खाती थी. हद तो तब हो गयी जब पैसों के पीछे अंधे हुए वर्मा जी ने दादी को खाने मे जहर मिलकर खिला दिया और जब वर्मा जी के परिवार को सजा मिलने की बारी आई तो उन्होंने पैसों और रुतबे के बलबूते पर अपने इस घिनौने अपराध को भी छुपा लिया .
यह कड़वा सच हमारे समाज के अनगिनत घरों की कहानी बनता जा रहा है. आखिरकार पैसा ही अन्धकार बनकर रिश्तों की गरिमा को ग्रहण लगा रहा है. दादी के जीवन की यह कड़वी घटना आज भी मेरे दिल को दहला देती है कि कैसे उनके अपने ही पैसों के पीछे हैवान बन गए. वर्मा जी के घर पर सारी सुख–सुविधाएँ होने की बावजूद और अधिक पैसो की लालसा ने ही बूढ़ी माँ के प्राणों की आहुति भी दे दी.
हमारे सामाज में ओल्ड ऐज होम की गिनती भी लगातार बढ़ती जा रही है और सच मानिए कभी आप ओल्ड ऐज होम के दरवाजे पर जाकर खड़े होंगे तो देखेंगे की वहाँ बूढ़ें माता –पिता की सुनी आँखों में से उबरते हजारों सवाल आपको दिखाई देंगे जिनका जवाब हमारे पास न होगा कि आखिर किस अपराध की सजा उन्हें दी जा रही है? क्या उनका अपराध यह था कि उन्होंने माँ –बाप बनकर आपना दायित्व निभाया? परन्तु दुःख इस बात का है कि बच्चे अपने माता–पिता को ओल्ड ऐज होम का दरवाज़ा दिखकर अपने कर्तव्यों से विमुख हो जाते हैं.
हम भारतीय समाज में रहते हुए अक्सर सँस्कारों की बात करते हैं और भगवान की पूजा करके अपनी आस्था प्रकट करने की आदर्शवादी बातें सीखते –सिखाते हैं. मैं तो यह कहूँगी कि अगर आप अपने माता–पिता को मौत के घाट धकेलकर भगवान की पूजा करके या संस्कारों की बड़ी-बड़ी बातें करके स्वयं को इंसान मानते हैं तो यह इन्सानियत के नाम पर कलंक है क्योंकि हमारे माता-पिता में ही साक्षात् भगवान का रूप निवास करता है.
मुस्लिम समाज तो माता का जन्नत और पिता को जन्नत का दरवाजा मानता है. क्या यह मर्तबा अपने माता-पिता को दे रहें है हम? हमारे माता–पिता के अधिकार अगर हम उन्हें नहीं देंगे तो कौन देगा? इसलिए हमारा, हमारे कानून व हमारे समाज का यह दायित्व है कि वे बजुर्गों के साथ हो रहे तमाम अमानवीय व अभ्रद्र व्यवहार को रोकें.
“बुजुर्गों से करें प्यार, यही है समृद्ध सुखी जीवन का आधार”
–डॉ. प्रीत अरोड़ा