कर्पूरी ठाकुर : न्याय की आस और हक के संघर्ष में बिसर गया एक नैतिक जीवन
अपनी जन्मशती पर भारत रत्न के सम्मान से नवाजे गए कर्पूरी ठाकुर गरीबों के सच्चे नायक थे. राजनेताओं और बिहार के मुख्यमंत्रियों के बीच उनका कद सबसे बड़ा था. 17 फरवरी, 1988 को असमय हुई उनकी मौत आज तक एक रहस्य है. उनकी मौत का कारण जांच का विषय है. वे एक स्वतंत्रता सेनानी थे जो भारत छोड़ो आंदोलन का हिस्सा भी थे. अपनी मौत तक वे समाजवादी विधायक बने रहे.
by डॉ. गोपाल कृष्ण
बिहार के मुख्यमंत्री के बतौर कर्पूरी ठाकुर ने फरवरी 1977 में जमा हुई मुंगेरी लाल आयोग की सिफारिशों को लागू किया था. सिफारिशों में पिछड़े वर्गों को अतिपिछड़ा मानने की बात थी, जिसमें मुसलमानों के कमजोर तबके भी शामिल थे. साथ ही अतिपिछड़ा और पिछड़ा वर्ग को नौकरियों में क्रमश: 12 और 8 फीसदी का आरक्षण देने की बात थी. इसके अलावा, किसी भी समूह से आने वाली औरत के लिए 3 फीसदी और ‘आर्थिक रूप से पिछड़े’ के लिए 3 फीसदी के आरक्षण की सिफारिश की गई थी. राज्य की सरकारी सेवाओं में पिछड़ों का प्रतिनिधित्व अपर्याप्त था. कर्पूरी ठाकुर ने यह फैसला भारत के संविधान के अनुच्छेद 15(4) और 16(4) के आधार पर लिया था.
आज तक घटे सामाजिक-राजनीतिक घटनाक्रम और सुप्रीम कोर्ट के दिए फैसलों ने समाज में व्याप्त असमानता, वंचना और अन्याय को संबोधित करने की कर्पूरी ठाकुर की दृष्टि को लगातार सही ठहराया है. पिछले साल महात्मा गांधी की जयन्ती पर बिहार के 13.07 करोड़ लोगों के जातिगत सर्वे के जारी किए गए गए आंकड़े कर्पूरी ठाकुर की सोच का ही विस्तार हैं. यह दिखाता है कि उनकी विरासत अब भी जिंदा है.
प्रेस की आजादी और कर्पूरी
भारी हो-हल्ले के बीच 3 अगस्त, 2023 को राज्यसभा से और 23 दिसंबर, 2023 को लोकसभा से पारित प्रेस एंड रजिस्ट्रेशन ऑफ पीरियॉडिकल्स ऐक्ट, 2023 को 28 दिसंबर 2023 को राष्ट्रपति से मंजूरी मिली. यह कानून बिहार के मुख्यमंत्री रहे जगन्नाथ मिश्र द्वारा लाए गए प्रेस बिल की याद दिलाता है, जिस पर बहुत बवाल हुआ था. विपक्ष का नेता होने के नाते तब कर्पूरी ठाकुर ने पटना उच्च न्यायालय में इस बिल को चुनौती देते हुए एक रिट याचिका दायर की थी.
जगन्नाथ मिश्र ने प्रेस बिल के रास्ते आइपीसी की धारा 292 और सीआरपीसी की धारा 455 को संशोधित करने की कोशिश की थी. यह बिहार प्रेस बिल 31 जुलाई 1982 को लाया गया था और उसी दिन पांच मिनट के भीतर दोनों सदनों में ध्वनिमत से पास कर दिया गया था. यह संशोधन राज्य सरकार को ‘’ब्लैकमेल की मंशा से अशोभनीय या अपमानजनक सामग्री छापने और प्रकाशित करने’’ से रोकने के अधिकार देता था. इसका पत्रकारों, प्रकाशकों, संपादकों और वितरक एजेंटों, हॉकरों तथा पाठकों ने जबरदस्त विरोध किया था. सीआरपीसी में संशोधन कर के जुर्म को गैर-जमानती और संज्ञेय बना दिया गया था. इससे पुलिस को ताकत मिल गई थी कि वह किसी भी पत्रकार को गिरफ्तार के कार्यकारी मजिस्ट्रेट के समक्ष पेश कर सकती थी, जो कि राज्य सरकार के नियंत्रण और दिशानिर्देशों के तहत काम करने वाले उच्च न्यायालय से सम्बद्ध न्यायिक मजिस्ट्रेटों के प्रावधान से उलट था. जुर्म साबित होने पर मुजरिम को जुर्माने सहित या बिना जुर्माने के दो साल तक की जेल हो सकती थी. जुर्म यदि दुहराया गया हो, तो सजा दो से पांच साल तक की थी, जुर्माना सहित.
पटना और दिल्ली में विपक्षी नेताओं, कांग्रेसी विधायकों और पत्रकारों के भीषण विरोध के बीच जगन्नाथ मिश्र ने अपने बिल के बचाव में तमिलनाडु के एक ऐसे ही कानून का हवाला दिया था, लेकिन इस तथ्य को वे छुपा ले गए थे कि तमिलनाडु के उक्त कानून की वैधता को मद्रास हाइकोर्ट में चुनौती दी जा चुकी है. दशकों बाद, 26 अक्टूबर 2017 को जगन्नाथ मिश्र ने अपने फैसले पर खेद जताते हुए कहा था कि केंद्रीय सूचना और प्रसारण मंत्री वसंत साठे की ब्रीफिंग के आधार पर ‘’जो बिहार प्रेस बिल मैं ले आया वह मैं मानता हूं कि मुझे नहीं लाना चाहिए था’’.
आज यदि कर्पूरी ठाकुर जिंदा होते तो उन्होंने नए प्रेस कानून और प्रस्तावित 60 पन्ने के ब्रॉडकास्टिंग सर्विसेज (रेगुलेशन) बिल, 2023 को पक्का चुनौती दी होती, जो मीडिया की आजादी पर पाबंदी लगाते हैं. इस बिल में 77 ऐसे संदर्भ हैं जो बताते हैं कि केंद्र सरकार अधीनस्थ विधायिकाओं के माध्यम से कानून बनाएगी. ऐसे में केंद्रीय विधायिका की क्या भूमिका रह जाती है? कर्पूरी ठाकुर जैसे नेताओं की अनुपस्थिति के चलते ही ऐसे मीडिया विरोधी कानूनों के खिलाफ पर्याप्त लोकतांत्रिक प्रतिरोध पैदा नहीं हो पा रहा है.
एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया ने प्रेस और पीरियॉडिकल्स पंजीकरण कानून, 2023 तथा ब्रॉडकास्टिंग सर्विसेज (रेगुलेशन) बिल के मसौदे में शामिल ‘विनाशकारी प्रावधानों’ पर गंभीर चिंता जताई है. गिल्ड ने प्रेस और पीरियॉडिकल्स पंजीकरण कानून, 2023 के संबंध में लोकसभा के स्पीकर को सुझाव दिया था कि इसे संसदीय समिति को भेज दिया जाए, लेकिन उसकी बात नहीं सुनी गई. विपक्ष की अनुपस्थिति में बिल को ध्वनिमत से राज्यसभा में पास कर दिया गया.
यह नया कानून किसी प्रकाशन के कार्य करने के तरीकों ‘पर निगरानी रखने और दखल देने के राज्य के अधिकारों को और व्यापक’ बनाता है. इसके कुछ प्रावधान ‘अस्पष्ट’ हैं और इसका प्रेस की स्वतंत्रता पर प्रतिकूल प्रभाव हो सकता है. एडिटर्स गिल्ड ने इस कानून के खिलाफ जो बयान जारी किया था उस पर इसके पदाधिकारियों सीमा मुस्तफा, अनंत नाथ और श्रीराम पंवार के दस्तखत हैं. यह बयान कहता है कि नया कानून प्रेस पंजीयक के अलावा अन्य सरकारी एजेंसियों को भी अनुपालक एजेंसी बनाता है, जिसमें पुलिस और अन्य एजेंसियां शामिल हैं. यही ‘सबसे ज्यादा चिंताजनक’ बात है. यह सरकार को ताकत देता है कि वह उन व्यक्तियों को पत्रिका निकालने के अधिकार से वंचित कर दे जो ‘आतंकी गतिविधि या गैरकानूनी गतिविधि’ के दोषी हैं या जिन्होंने ‘राज्य की सुरक्षा के खिलाफ कुछ भी किया हो’.
मसलन, कानून की धारा 19 केंद्र सरकार को ऐसे नियम बनाने का अधिकार देती है जिनके तहत भारत में समाचार प्रकाशित किए जाने हैं. इसमें सरकार को यह ताकत मिली हुई है कि वह अपने मनमर्जी ‘गैरकानूनी गतिविधि’ को परिभाषित करे और यह बताए कि ‘राज्य की सुरक्षा के खिलाफ’ क्या है. यानी नए कानून का सारा जोर ‘पंजीयन’ के बजाय ‘नियमन’ पर है.
जहां तक ड्राफ्ट ब्रॉडकास्टिंग सर्विसेज बिल का सवाल है, गिल्ड ने इस बात पर चिंता जाहिर की है कि सरकार के पास कंटेंट की निगरानी करने और उसे ब्लॉक करने, अस्पष्ट आधार पर प्रसारण को रोकने और एक ऐसी आत्मनियमन प्रणाली लाने का अधिकार हो जाएगा जो सरकारी नियंत्रण में इजाफा करेगा. यह ड्राफ्ट बिल अस्पष्ट परिभाषाओं और अधीनस्थ विधेयकों के लिए बहुत सी जगह बनाता है. इसी नियमन प्रणाली के अंतर्गत केबल टीवी और रेडियो के साथ ऑनलाइन समाचार प्रकाशकों और ओटीटी प्रसारकों को ले आने का प्रस्ताव अतार्किक और अन्यायपूर्ण है. इसके अलावा, ओटीटी प्रसारकों पर लगाए जाने वाले कड़े नियम उनके ऊपर वित्तीय और अनुपालनात्मक बोझ को बढ़ाने का काम करेंगे. इसमें ‘प्रोग्राम’ की जो परिभाषा दी गई है उसके अंतर्गत डिजिटल वेबसाइटों का लेखन भी आ जाएगा. ‘लेखन’ की परिभाषा अस्पष्ट रखी गई है. इस तरह समाचार (स्वतंत्र समाचार वेबसाइटें, समाचार और विचार प्रसारण के लिए स्थापित हो चुके व्यक्ति, व्याख्यापरक वीडियो, अन्य ऑनलाइन उपलब्ध ऑडियो-विजुअल सामग्री), ओटीटी कंटेंट, शो, सीरियल, डॉक्युमेंट्री और अन्य फीचर को एक ही मान लिया गया है. लिहाजा, समाचार को पहली बार केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड (सीबीएफसी) जैसे एक संस्थागत ढांचे के दायरे में लाया जा रहा है, जो प्रमाणन अब तक सिनेमा के लिए आरक्षित था. सेंसरशिप का यह शुरुआती खाका होगा. यह कानून के दुरुपयोग को खुला निमंत्रण है.
यह बिल शोधकर्ताओं और पत्रकारों के उपकरण और औजार जब्त किए जाने को सामान्य बनाता है. बिल में केंद्र सरकार द्वारा बनाई गई श्याम बेनेगल समिति की सिफारिशों को अनदेखा किया गया है. डिजिटल माध्यम से जो कोई भी समाचार या समसामयिक प्रोग्राम बनाता हो, यह बिल उसको मंत्रालय के दायरे में ले आता है. यह हर किसी पर लागू है, केवल मीडिया कंपनियों या पत्रकारों तक सीमित नहीं है जो पेशेवर या वाणिज्यिक गतिविधि के तौर पर समाचार प्रसारण करते हैं. इस बिल में ‘समाचार और समसामयिक मामलों’ की परिभाषा पर भी चिंता जताई गई है. यानी पत्रकारीय अभिव्यक्ति और विविध नजरियों तक पहुंच के अधिकार को भी खतरा पैदा हो रहा है.
यहां यह याद किया जाना होगा कि प्रेस बिल के खिलाफ कर्पूरी ठाकुर पटना में कई दिनों तक पत्रकारों और छायाकारों के साथ धरने पर बैठे थे. उनकी यह विरासत प्रेस और पीरियॉडिकल्स पंजीकरण कानून, 2023 तथा ब्रॉडकास्टिंग सर्विसेज रेगुलेशन बिल, 2023 के खिलाफ खड़ा होने की एक नजीर पेश करती है.
कर्पूरी ठाकुर बनाम अब्दुल गफ्फूर
ऐसे ही कुछ और मामले हैं जो न्याय की तलाश में आजीवन जुटे रहे कर्पूरी ठाकुर की प्रतिरोधी विरासत हमारे सामने लाते हैं. जैसे, कर्पूरी ठाकुर बनाम अब्दुल गफ्फूर के केस में जस्टिस एसएनपी सिंह द्वारा ठाकुर को राहत देने से इनकार किया जाना, जिसका आधार समझाते हुए जज ने कहा था: ‘’यह स्थापित सिद्धांत है कि यदि कोई वैकल्पिक उपचार उपलब्ध है, तो हाइकोर्ट रिट ऑफ मैंडेमेस जारी करने के अपने विशेषाधिकार का प्रयोग नहीं करेगा. इसलिए, याची का आवेदन इस आधार पर खारिज किए जाने योग्य है.‘’
यह आदेश 3 मई, 1974 को दिया गया था. मुख्यमंत्री अब्दुल गफ्फूर की तरफ से पैरवी करते हुए एडवोकेट जनरल ने कहा था कि सरकार की नीति सदन द्वारा खारिज किए जाने के संबंध में पैदा हुए गतिरोध को लेकर संविधान में पर्याप्त प्रावधान दिए गए हैं, लिहाजा कोर्ट किसी अन्य उपचार को नहीं सुझा सकता.
इस मामले में उपलब्ध उपचार यह था कि मुख्यमंत्री और उसके मंत्रिमंडल को बरखास्त करने का अधिकार केवल गवर्नर के पास है क्योंकि गवर्नर ही उनकी नियुक्ति करता है और उसी की आश्वस्ति से सरकार कायम रहती है, बशर्ते गवर्नर इस बात से मुतमईन हो कि मुख्यमंत्री और मंत्रिपरिषद को विधानसभा में बहुमत का विश्वास हासिल नहीं है. दूसरा उपचारात्मक विकल्प यह था कि यदि कोई मंत्रिपरिषद विधानसभा के बहुमत के विश्वास से खुद को गिरा पाती हो तो वह गवर्नर से सदन को भंग करने की सिफारिश कर सकती है और गवर्नर ऐसा कर सकते हैं. अदालत कोई तीसरा उपचार देकर मुख्यमंत्री से उसका इस्तीफा नहीं मांग सकती.
कर्पूरी ठाकुर का केस यह था कि धन्यवाद प्रस्ताव पर बहस के बगैर ही विधानसभा का सत्रावसान कर दिया गया था जिससे यह स्थापित होता था कि अब्दुल गफ्फूर की सरकार को सदन का विश्वास हासिल नहीं है इसलिए मंत्रिपरिषद की वैधता समाप्त हो चुकी थी और वह संवैधानिक रूप से सत्ता में नहीं रह सकती थी. कर्पूरी ठाकुर का कहना था कि असेंबली का सत्रावसान मुख्यमंत्री और उनकी मंत्रिपरिषद के कहने पर किया गया क्योंकि उन्हें अहसास हो चुका था कि वचे सदन का विश्वास खो चुके हैं और इसीलिए वे गवर्नर के अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव हासिल करने की स्थिति में नहीं थे. इसीलिए कर्पूरी ठाकुर ने मुख्यमंत्री को परमादेश (रिट ऑफ मैंडेमस) की याचिका डाली थी कि वे अपने पद से इस्तीफा दे दें, मंत्रिमंडल भी इस्तीफा दे और उन्हें बिहार के मुख्यमंत्री के बतौर काम करने से रोका जाए.
कर्पूरी ठाकुर का आरोप था कि विधानसभा अध्यक्ष ने अपनी मनमर्जी से सदन का सत्रावसान कर दिया था, लेकिन उनके वकील बासुदेव प्रसाद ने सदन के सत्रावसान पर कोई दलील नहीं दी. इसके बजाय प्रसाद की दलील यह थी कि यह मुख्यमंत्री का संवैधानिक दायित्व है कि साल के पहले सत्र में बहस और वोटिंग के बाद गवर्नर के अभिभाषण के पश्चात वह धन्यवाद प्रस्ताव के माध्यम से सदन का विश्वास हासिल करे, ताकि मौजूदा वर्ष में राजकोष से होने वाले खर्च, इत्यादि के संबंध में अपनी सरकार की नीतियों और विधायी कार्यक्रम के लिए निचले सदन की अनुमति उसे मिल सके. चूंकि मुख्यमंत्री ऐसा करने में नाकाम रहे हैं लिहाजा उनके और उनकी मंत्रिपरिषद पास अब पद पर रहने का संवैधानिक और कानूनी अधिकार नहीं रह गया है तथा वे संविधान के अनुचछेद 163(1) के तहत राज्यपाल को सलाह नहीं दे सकते. ऐसे में मुख्यमंत्री का यह अनिवार्य संवैधानिक दायित्व है कि वे अपने मंत्रिमंडल के साथ पद से इस्तीफा दे दें.
प्रसाद ने कहा कि धन्यवाद ज्ञापन के नोटिस और गवर्नर के अभिभाषण में संशोधन के संबंध में विज्ञप्ति जारी किए बगैर सत्रावसान किए जाने के चलते गवर्नर के अभिभाषण से लेकर सदन की समूची कार्यवाही ही निरर्थक हो जाती है. चूंकि गवर्नर के अभिभाषण से सबंधित कार्यवाही को संविधान के अनुच्छेद 176(1) के प्रतिबंधों के चलते दोबारा शुरू नहीं किया जा सकता, इसलिए ऐसी स्थिति में विधानसभा भविष्य के लिए पंगु हो जाती है. यानी आगे से वह कोई कार्यवाही नहीं कर सकती, जिसमें 30 जुलाई 1974 को प्रस्तावित वित्त विधेयक का पारित होना भी शामिल है. इसलिए मुख्यमंत्री के रूप में अब्दुल गफ्फूर के नेतृत्व में एक लोकतांत्रिक सरकार का होना असंभव हो जाता है.
अदालत इन दलीलों से सहमत नहीं हुई. उपलब्ध दस्तावेजों की जांच से पता चलता है कि कर्पूरी ठाकुर द्वारा अदालत को जमा कराए गए कागजात और तथ्यों पर अदालत को कोई आपत्ति नहीं थी. कर्पूरी ठाकुर प्रक्रियागत आधार पर यह मुकदमा हार गए थे. लिहाजा, अब्दुल गफ्फूर का मुख्यमंत्री बने रहना तकनीकी और कानूनी रूप से तो सही था, लेकिन अवैध था.
कर्पूरी ठाकुर बनाम स्टेट ऑफ बिहार
एक और मामला कर्पूरी ठाकुर बनाम स्टेट ऑफ बिहार का है, जिस पर सुनवाई करते हुए पटना उच्च न्यायालय के जस्टिस नागेंद्र प्रसाद सिंह ने अपने फैसले के निष्कर्ष में कहा, ‘’जब कभी स्पीकर किसी व्यक्ति को विपक्ष के नेता के रूप में मान्यता देता है, वह ऐसा नजीर या विधायिका के आचार के मद्देनजर करता है और साथ ही कानूनी परिभाषा का भी खयाल रखता है. अगर उसके फैसले का आधार कानून नहीं बल्कि परंपरागत आचार हो, तब उसे उस विपक्षी पार्टी के नेता को विपक्ष का नेता चुनना होता है जिसके पास न सिर्फ कानूनन सबसे ज्यादा संख्या हो बल्कि सदन की कुल सदस्यता का दसवां हिस्सा भी हो. ऐसी स्थिति में उसके फैसले को असंवैधानिक या गैर-कानूनी ठहरा पाना मुश्किल होगा.‘’
इसी टिप्पणी के साथ कर्पूरी ठाकुर की उस रिट याचिका को 16 दिसंबर, 1982 को खारिज कर दिया गया, जिसमें उन्होंने यह जानने की कोशिश की थी कि बिहार विधानसभा में विपक्ष के नेता के बतौर उनकी मान्यता रद्द किया जाना वैध और कानूनी है या नहीं.
हुआ यह था कि असेंबली के अध्यक्ष ने उन्हें बिहार विधानसभा के अध्यक्ष की मान्यता दी थी. इस संबंध में उन्हें 1 जुलाई, 1980 को स्पीकर का फैसला सूचित किया गया. उस सूचना में यह कहा गया था कि कर्पूरी ठाकुर उस पार्टी के नेता हैं जिसकी संख्या असेंबली में 42 विधायकों की है जो कि विपक्ष के किसी भी दल के मुकाबले सबसे ज्यादा है, इसलिए स्पीकर कर्पूरी ठाकुर को विधानसभा में विपक्ष का नेता घोषित करते हैं. इसके कुछ दिन बाद पार्टी दो फाड़ हो गई और कर्पूरी ठाकुर वाले धड़े का संख्याबल 31 विधायकों तक सिमट गया.
विधानसभा स्पीकर ने ठाकुर को 4 अक्टूबर, 1982 को सूचित किया कि उनके नेतृत्व वाले दल के विधानसभा सदस्यों की संख्या 42 से घटकर 31 रह गई है इसलिए विपक्ष के नेता के बतौर उनकी मान्यता रद्द की जाती है. इस बात पर कोई संदेह नहीं था कि कर्पूरी ठाकुर जिस दल के नेता थे वह विधानसभा में अब भी विपक्ष का सबसे बड़ा दल था, उन्होंने यही दलील भी रखी और कहा कि इसी वजह से उन्हें विपक्ष के नेता की मान्यता बरकरार रखी जाए. यह मांग तार्किक थी.
इसके बावजूद जस्टिस सिंह ने कर्पूरी ठाकुर के वकील की यह दलील नहीं मानी कि बिहार लेजिस्लेचर (लीडर्स ऑफ अपोजीशन सैलरी ऐंड अलाउएंसेज) ऐक्ट, 1977 की धारा 2 स्पीकर को सत्र के दौरान किसी भी व्यक्ति को विपक्ष का नेता मानने पर निषेधाज्ञा जारी करती है और कानून के तहत इस सबंध में कोई प्रक्रिया भी वर्णित नहीं है. कर्पूरी ठाकुर के वकील का कहना था कि धारा 2 भले ही परिभाषा के तौर पर दर्ज है लेकिन इसे कानून के प्रावधान के तौर पर पढ़ा जा सकता है, जिसके अंतर्गत यह स्पीकर पर कर्तव्यनिष्ठ हो जाता है कि वह सदन में सबसे ज्यादा संख्या वाले विपक्षी दल के नेता को ही विपक्ष का नेता माने.
जस्टिस सिंह इस दलील से सहमत नहीं हुए. दस्ताचेजी तथ्यों से स्पष्ट है कि कर्पूरी ठाकुर की आपत्ति बिलकुल ठोस थी लेकिन पटना उच्च न्यायालय से उन्हें न्याय नहीं मिला. ऐसा उनके साथ पहली बार नहीं हुआ था कि वे बिहार विधानसभा के अध्यक्ष के हाथों अन्याय का शिकार हुए थे.
विधानसभा की 13 जनवरी, 1988 की दिनांकित कार्यवाही के अनुसार 11 अगस्त, 1987 को असेंबली के स्पीकर शिव चंद्र झा ने कर्पूरी ठाकुर को विपक्ष के नेता के पद से हटा दिया. स्पीकर के इस फैसले के खिलाफ विपक्ष में भीषण रोष पैदा हुआ. विरोध पटना की सड़कों तक पहुंच गया. विपक्ष ने राज्यपाल पी. वेंकटसुब्बैया को अर्जी दी. फिर उसने लोकसभा अध्यक्ष बलराम जाखड़ को लिखा. बिहार विधानसभा के अध्यक्ष शिव चंद्र झा के खिलाफ ज्ञापन लिखकर विपक्ष ने देश भर की विधानसभाओं को भेजा. सदन के भीतर विपक्ष ने स्वीकर के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव और उसे हटाए जाने का प्रस्ताव ला दिया. इस प्रस्ताव पर फैसला सुनाने के बजाय झा ने तय तारीख से तीन दिन पहले ही विधानसभा को अनंतकाल के लिए विसर्जित कर डाला. विपक्षी विधायकों का बहुमत होने के बावजूद झा ने कर्पूरी ठाकुर को विपक्ष के नेता के पद से हटा दिया. ठाकुर ने तो अपने विधायकों की गवर्नर के सामने परेड तक करा दी थी, इसके बावजूद स्पकीर झा ने अपना फैसला नहीं पलटा.
2 सितंबर, 1987 को पटना हाइकोर्ट में रिट याचिका (संख्या 3984) दाखिल की गई. अदालत ने 8 सितंबर को उसे खारिज कर दिया. इसके बाद कर्पूरी ठाकुर ने सिविल एसएलपी 11678 और एक अन्य सीएमपी 25127 दाखिल की. स्पीकर ने यह कहते हुए मामले पर फैसला देने से इनकार कर दिया कि मासमला न्यायाधीन है. स्पीकर झा के अन्यायपूर्ण फैसले के खिलाफ कर्पूरी ठाकुर अपनी जिंदगी के अंत तक कानूनी लड़ाई लड़ते रहे. कोर्ट के रिकॉर्ड का शुरुआती परीक्षण करने पर उनकी याचिका पर कहीं कुछ भी नहीं मिलता. इससे जुड़े केस के विवरण हाइकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट की वेबसाइटों पर भी उपलब्ध नहीं हैं. इसका क्या न्याय-निर्णय हुआ, यह पता करने के लिए अदालती रिकॉर्ड का गहन परीक्षण करना होगा. राज्य विधानसभा की कार्यवाही बताती है कि पीठासीन अधिकारी ने ठाकुर के दावे पर कोई फैसला नहीं लिया था, वही दलील देते हुए कि मामला सुप्रीम कोर्ट में न्यायाधीन है.
कोसी परियोजना और बीएसएस
अपनी पुस्तक मिनिस्टर्स मिसकंडक्ट में एजी नूरानी लिखते हैं:
ललित नारायण मिश्र और लहटन चौधरी जैसे मंत्रियों के हाथों बिहार को जैसी बदकिस्मती भोगनी पड़ी, उसकी कहानी जस्टिस केके दत्त की अध्यक्षता वाले उस जांच आयोग के जिक्र के बगैर पूरी नहीं होगी जिसे कर्पूरी ठाकुर की सरकार ने कोसी प्रोजेक्ट में भारत सेवक समाज (बीएसएस) के फंड के दुरुपयोग के आरोपों की पड़ताल के लिए 27 मई 1971 को नियुक्त किया था. जस्टिस दत्त पटना हाइकोर्ट के पूर्व जज थे. इस आयोग द्वारा की जाने वाली जांच का एक आयाम यह पता करना था कि ‘’क्या भारत सेवक समाज ने कोसी परियोजना में जनसहयोग के आह्वान पर केंद्रीय निर्माण कमेटी और कोसी परियोजना निर्माण कमेटी से परियोजना में निर्माण का ठेका लिया था और अपने यूनिट प्रमुखों के माध्यम से 1955 से 1962 के बीच रिश्वत खाई थी, जिसमें से 23 लाख से ज्यादा की रकम इसलिए वसूल नहीं की जा सकी क्योंकि ललित नारायण मिश्र और लहटन चौधरी द्वारा नियुक्त किए गए वे यूनिट प्रमुख अस्तित्व में ही नहीं थे और क्या उक्त रकम या उसका कोई हिस्सा गबन चला गया, जिससे कोसी परियोजना के प्रयाासन और सरकार को नुकसान पहुंचा.
मिश्र बीएसएस की केंद्रीय निर्माण समिति के अध्यक्ष थे और चौधरी उसके सचिव थे. कर्पूरी ठाकुर के नेतृत्व वाली राज्य सरकार को केंद्रीय मंत्री मिश्र की संलिप्तता वाले मामले में जांच के लिए एक जांच आयोग गठित करने का पूरा अधिकार था क्योंकि मामला मिश्र के केंद्रीय मंत्री बनने से पहले का था. दुर्भाग्य यह रहा कि इस न्यायिक जांच आयोग को कर्पूरी ठाकुर की सरकार गिरने के बाद भंग कर दिया गया और इसका काम पूरा नहीं होने दिया गया. जस्टिस दत्त आयोग की बहाली की मांग तो हुई लेकिन उसे अनसुना कर दिया गया.
न्यायिक जांच आयोगों को सरकार द्वारा भंग किए जाने के ऐसे उदाहरणों के चलते ही यह दलील मजबूत हो उठती है कि सरकारों को कमीशन ऑफ इंक्वायरी ऐक्ट, 1952 के तहत प्राप्त जांच रोकने के अधिकार से ही वंचित कर दिया जाय. यह कानून इंग्लिश ट्रिब्यूनल्स ऑफ इंक्वायरी (एविडेंस) ऐक्ट, 1921 की नकल है, लेकिन भारतीय कानून के उलट अंग्रेजी कानून में सरकार को जांच रोकने के अधिकार प्राप्त नहीं हैं.
कर्पूरी ठाकुर के नेतृत्व वाली सरकार द्वारा फंड के दुरुपयोग की जांच का फैसला कालांतर में सही साबित हुआ, जब राज्य विधानसभा की एस्टिमेट कमेटी की 38 पन्ने लंबी 53वीं रिपोर्ट में ‘सहरसा जिले के बलुआ बाजार के मिश्र परिवार’’ के ठेकेदारों पर आरोप लगाया गया कि उन्हें दूसरे ठेकेदारों के मुकाबले समान कार्य करने के लिए कहीं ज्यादा पैसों का भुगतान हुआ है और इस परिवार के प्रति असाधारण पक्षपात किया गया है.
वो तो काफी बाद में प्रतिष्ठित सांसद ज्योतिर्मय बसु ने 18 दिसंबर, 1974 को लोकसभा में एक प्रस्ताव रखा जो कहता था कि ‘’यह सदन संकल्प लेता है कि इस सदन के सदस्य और कैबिनेट के सदस्य श्री ललित नारायण मिश्र को सदन की सदस्यता से बरखास्त किया जाए क्योंकि उन्होंने गंभीर दुराचार किए हैं, जैसा कि भारत सेवक समाज के मामले में जांच आयोग की रिपोर्ट से स्पष्ट होता है और विशेष रूप से आयोग को दी गई गवाहियों से स्पष्ट है….‘’ उन्होंने इस बात की ओर ध्यान दिलाया कि लोकलेखा समिति ने 1963’64 के लिए अपनी 34वीं रिपोर्ट (तीसरी लोकसभा) में भारत सेवक समाज के अधूरे बहीखाते पर प्रतिकूल टिप्पणी की थी और चाहता था कि योजना आयोग शुरू से बीएसएस के बहीखातों को जमा करने की मांग करे. इसके लिए बीएसएस को छह माह का वक्त दिया गया और कहा गया कि ऐसा होने तक कोई अन्य अनुदान नहीं दिया जाएगा. रिपोर्ट कहती है: ‘’भारत सेवक समाज लोकलेखा समिति द्वारा दी गई छह माह की अवधि में अपना बहीखाता जमा नहीं करा सका और उसने अनुदान जारी करने का अनुरोध किया तथा बहीखाता जमा कराने के लिए सरकारी प्रारूप की मांग की.‘’
चौथी लोकसभा की लोकलेखा समिति फिर से इस मामले पर आती है, ‘’इसी पृष्ठभूमि में जस्टिस जीवन लाल कपूर का जांच आयोग भारत सेवक समाज के मामलों की जांच के लिए 1969 में केंद्रीय कृषि मंत्रालय के सामुदायिक विकास विभाग द्वारा गठित किया गया और 1973 में उसने अपनी रिपोर्ट जमा की.” ध्यान देने वाली बात है कि 12 दिसंबर, 1974 को इंदिरा गांधी ने ललित नारायण मिश्र के खिलाफ आरोपों पर राज्यसभा में जवाब दिया था. कोसी परियोजना में कर्पूरी ठाकुर द्वारा शुरू करवाई गई न्यायिक जांच की गूंज कई बरस तक संसद में सुनाई देती रही.
नैतिकता की मिसाल
कोसी परियोजना में भ्रष्टाचार की विरासत आज भी बिहार की समृद्धि को खाये जा रही है. इस संदर्भ में यह याद करने वाली बात है कि नीतिश कुमार की सरकार ने अगस्त 2008 में कोसी बांध में हुई टूट के कारणों की जांच के लिए 11 सितंबर 2008 को एक सदस्यीय जांच आयोग गठित किया था. पटना उच्च न्यायालय के पूर्व चीफ जस्टिस राजेश बालिया की अध्यक्षता वाले इस आयोग ने मार्च 2014 में अपनी रिपोर्ट जमा की जिसमें सिफारिशें और उपचारात्मक कदम भी शामिल थे. यहां अहम बात यह है कि जस्टिस बालिया आयोग के आधिकारिक जांच के दायरे में वह अवधि भी थी जिसके लिए कर्पूरी ठाकुर ने जस्टिस दत्त वाली जांच समिति बनाई थी.
अफसोस, कि कोसी नदीघाटी के निवासी शुरुआती वर्षों में भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ चुके समूचे भू-परिदृश्य और ड्रेनेज प्रणाली को दुरुस्त करने की आवाजें आज तक उठाते आ रहे हैं. गरीबों के सच्चे नायक कर्पूरी ठाकुर की स्मृति को श्रद्धांजलि स्वरूप एक उच्चस्तरीय आयोग बनाया जाना चाहिए जो ढांचागत भ्रष्टाचार से कोसी नदीघाटी को हुए नुकसान को पलट सके और कोसी की ड्रेनेज प्रणाली को बहाल कर सके.
राजनीतिक दलों, विधायिका, उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय का इतिहास गवाह है कि कर्पूरी ठाकुर का नैतिक पक्ष उन सब के मुकाबले आज भी कहीं ज्यादा ऊंचा है जिन्होंने उनके साथ और उनके न्यायपूर्ण सरोकारों के साथ अन्याय किया है.