दलितों पर बढ़ते अत्याचार के साथ अमृत काल में प्रवेश करता भारत
अगस्त में आजादी की 75वीं वर्षगांठ की पूर्व संध्या पर, नौ वर्षीय दलित लड़के की हफ्तों पहले लगी चोटों के कारण मौत हो गई थी. राजस्थान के जालोर जिले में इस तीसरी कक्षा के छात्र को उसके शिक्षक ने कथित तौर पर पानी के बर्तन को छूने की वजह से बुरी तरह से पीटा था. सितंबर में, यूपी के औरिया जिले में एक 15 वर्षीय लड़के की भी इसी तरह मौत हो गई थी, जब उसके शिक्षक ने उसे इम्तिहान में गलती करने के लिए पीटा था. कुछ दिनों बाद यूपी के लखीमपुर खीरी के एक गांव की दो दलित बहनों का बलात्कार कर उनकी हत्या कर दी गई, उनके शव पेड़ से लटके पाए गए. अत्याचारों की यह श्रृंखला मीडिया की सुर्खियों में आई, जिसने देश और उसके बाहर भी सभी को हिला कर रख दिया. दोषियों को गिरफ्तार किया गया, मुआवजे की घोषणा की गई और सभी ने अपना विधिवत आक्रोश दर्ज किया.
लेकिन ऐसी घटनाएं भारत में दलितों की हिंसा और उत्पीड़न का छोटा सा नमूना है, जिस भारत के बारे में दावा किया जा रहा है कि वह अब अमृत काल में प्रवेश कर रहा हैं- जो आज़ादी की 75 वीं वर्षगांठ से शुरू होकर 2047 तक यानि आज़ादी के 100वें साल तक चलेगा. 1991 से, जब से डेटा उपलब्ध है, पुलिस ने अधिकारिक तौर पर 7 लाख से अधिक अत्याचार के मामले दर्ज किए गए हैं. यानी हर घंटे दलितों के खिलाफ करीब पांच अपराध होते हैं. और ये सिर्फ आधिकारिक तौर पर दर्ज मामले हैं. बड़ी संख्या में इस किस्म के मामले नियमित तौर पर दर्ज़ ही नहीं होते हैं, ऐसा इसलिए होता है क्योंकि उच्च जाति के अपराधियों के रिश्ते ऊपर तक होते हैं और उत्पीड़ित लोगों के दिलों में अपराधियों का डर होता है.
कुछ राज्यों में हिंसा काफी बढ़ रही है
पिछले तीन वर्षों में, यानि 2019 से 2021 के दौरान, देश में दलितों के खिलाफ अत्याचार में 11 प्रतिशत की वृद्धि हुई है. राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के नवीनतम उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार, रिकॉर्ड किए गए मामले 2019 में 45,961 से बढ़कर 2021 में 50,900 हो गए हैं.
यह वृद्धि कुछ राज्यों में इस हिंसा (और मामलों के दर्ज़ होने कारण) में भारी वृद्धि से प्रेरित है. नीचे दिया गया चार्ट राष्ट्रीय औसत की तुलना में दलित-विरोधी अत्याचारों में उच्च प्रतिशत वृद्धि वाले राज्यों के आंकड़ों को दर्शाता है.
जैसा कि चार्ट में देखा जा सकता है, पूरे उत्तर भारतीय बेल्ट- यानि बिहार को छोड़कर- में अत्याचारों में वृद्धि हुई है जो राष्ट्रीय औसत से काफी अधिक है. बिहार, (जिसे चार्ट में नहीं दिखाया गया है), साथ ही पड़ोसी झारखंड और छत्तीसगढ़ में, दर्ज़ अत्याचारों की संख्या में गिरावट आई है.
यह गौर करने की बात है कि लगभग सभी भारतीय जनता पार्टी शासित राज्यों में औसत अपराध से अधिक वृद्धि हुई है, गुजरात केवल इसका अपवाद है. ऐसे राज्यों में मध्य प्रदेश, हरियाणा, उत्तराखंड, गोवा, हिमाचल प्रदेश, कर्नाटक और उत्तर प्रदेश शामिल हैं. लेकिन कई विपक्षी शासित राज्य जैसे तमिलनाडु, राजस्थान और महाराष्ट्र (महाराष्ट्र में कुछ समय तक विपक्षी गठबंधन सत्ता में था) भी इस सूची में शामिल हैं.
जबकि भाजपा सहित संघ परिवार की उच्च जाति-उन्मुख विचारधारा को इस चिंताजनक स्थिति में योगदान देने के लिए जिम्मेदार ठहराया जा सकता है, लेकिन इस बात पर भी जोर देने की जरूरत है कि जातिगत उत्पीड़न प्रणालीगत है और भारतीय समाज के ताने-बाने में बुना हुआ है. सरकारी लापरवाही या मिलीभगत के कारण यह बढ़ सकता है, लेकिन राज्य की मशीनरी स्वयं उच्च जाति के पूर्वाग्रहों से काफी प्रभावित है. दूसरी ओर, दलित समुदाय मुख्य रूप से गरीब, भूमिहीन, श्रमिक वर्ग हैं, जिनका सदियों से दमन किया गया, उन्हे कलंकित किया गया और समाज के हाशिए पर रखा गया है वह भी उत्पीड़न का विरोध करने किसी साधन के बिना ऐसा किया गया है. यहां तक कि राजनीतिक सशक्तिकरण – यानि तबके से निर्वाचित प्रतिनिधियों के होने बावजूद – ने भी जाति उत्पीड़न को रोकने में बहुत कुछ नहीं किया है.
दलित आबादी के संबंध में हिंसा
यदि किसी राज्य विशेष में अनुसूचित जातियों (दलितों) की प्रति 1 लाख जनसंख्या पर अपराध दर यानी अपराधों की संख्या को देखा जाए तो इस मुद्दे का एक अलग ही आयाम सामने आता है. यह उपाय इसलिए सार्थक है क्योंकि राज्यों में दलित आबादी व्यापक रूप से भिन्न है; इसलिए अत्याचारों की संख्या की तुलना करना अक्सर भ्रामक हो सकती है. उच्च दलित आबादी वाले राज्यों में अधिक संख्या में मामले हो सकते हैं, जो एक छोटी दलित आबादी वाले राज्य के साथ इसकी तुलना को अतुलनीय बनाता है.
नीचे दिया गया चार्ट 40 लाख से अधिक दलित आबादी वाले राज्यों में दलितों के खिलाफ अत्याचार की अपराध दर और देश भर में प्रति लाख दलित आबादी पर अत्याचार के लगभग 25 मामलों की औसत अपराध दर से अधिक है.
जैसा कि देखा जा सकता है, मध्य प्रदेश और राजस्थान फिर से सबसे अधिक अपराध दर वाले दो राज्य हैं, जो राष्ट्रीय औसत से लगभग ढाई गुना अधिक हैं. इस सूची में अन्य राज्यों में बिहार, तेलंगाना, ओडिशा, उत्तर प्रदेश और हरियाणा (सभी 30 से ऊपर), और गुजरात (30 से नीचे, 29.5 पर) शामिल हैं. अपेक्षाकृत उच्च दलित आबादी वाले उल्लेखनीय राज्यों में दलितों के खिलाफ अपराधों की इतनी अधिक दर नहीं है, जिनमें पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, पंजाब, महाराष्ट्र और कर्नाटक शामिल हैं.
आश्चर्यजनक रूप से, राज्यों के उत्तरी क्षेत्र को फिर से इस चार्ट में दिखाया गया है- यह दर्शाता है कि ये वे राज्य हैं जहां दलितों के खिलाफ अपराधों की दर ऊंची है.
प्रमुख राजनीतिक दल क्या कर रहे हैं?
यह अजीब बात है कि दलितों का उत्पीड़न बेरोकटोक सभी जगह जारी है, बावजूद इसके कि भाजपा और कांग्रेस जैसी प्रमुख पार्टियों, साथ ही राज्य स्तर की मजबूत पार्टियों जैसे समाजवादी पार्टी या बीजू जनता दल, या यहां तक बहुजन समाज पार्टी जो दलित आबादी के हितों का प्रतिनिधित्व करने का दावा करती है, दलित सशक्तिकरण की तमाम बातों के बाद भी जारी है.
जबकि कानूनों को मजबूत करना, और उन्हे पुलिस और अदालतों के माध्यम से ध्यान से और निष्पक्ष तरीके से लागू करना प्रशासनिक स्तर पर एक जरूरी कदम हैं, स्थिति सामाजिक और आर्थिक क्षेत्रों में बहुत अधिक व्यापक बदलाव की मांग करती है. दलित भूमिहीनों को भूमि, रोजगार, शिक्षा, आवास और चिकित्सा देखभाल जैसे उपायों से ही उनके सशक्तिकरण का भौतिक आधार तैयार किया जा सकता है. बेशक, इसके साथ भेदभाव और हिंसा की प्रथा को तोड़ने के लिए व्यापक सामाजिक अभियान चलाने की जरूरत है.
प्रमुख राजनीतिक दलों, और उनके कई सहयोगियों, विशेष रूप से आरएसएस-बीजेपी समूह, से यह पूछने की जरूरत है कि एक बड़ी आबादी वाले चुनावी और सामाजिक-सांस्कृतिक नेता होने का दावा करने के बावजूद उन्होंने अब तक इस तरह का रास्ता क्यों नहीं अपनाया है.
सौजन्य : Newsclick
नोट : यह समाचार मूलरूप से newsclick.in में प्रकाशित हुआ है. मानवाधिकारों के प्रति संवेदनशीलता व जागरूकता के उद्देश्य से प्रकाशित किया गया है !