याद रखिये फिर समय चिंतन का भी नहीं मिलेगा
आज तक मुसलमानों को जो भी चोट पहुंची, वह दूसरों की तुलना में अपनों के कारण ज़्यादा है। इतिहास हमें बताता है कि....
कलीमुल हफ़ीज़ :
कहने वाले ने क्या ख़ूब कहा है "अपने ही गिराते हैं नशेमन पे बिजलियाँ- दुश्मन न करे दोस्त ने वह काम किया है" पैग़ंबर मुहम्मद साहब (स०) के युग से लेकर आज तक मुसलमानों को जो भी चोट पहुंची, वह दूसरों की तुलना में अपनों के कारण ज़्यादा है। इतिहास हमें बताता है कि उहुद की जंग में पैग़ंबर मुहम्मद साहब (स०) के दांत मुबारक शत्रु की चाल से नहीं, बल्कि अपनों की नादानी के कारण शहीद हुए थे।
यदि सहाबा (साथी) ने उस समय पैग़ंबर के आदेशों का पालन किया होता, तो ख़ालिद बिन वलीद (जो इस समय तक इस्लाम नहीं लाये थे) की युद्ध रणनीति धरी रह जाती, अपनों की नादानी के कारण जो हुआ वह इतिहास का एक काला अध्याय है, लेकिन ख़ुशी यह है कि जैसे ही पैग़ंबर के साथियों ने अपनी ग़लती से सीखा, हारी बाज़ी पलट दी, लेकिन तब तक जो होना था हो चुका था, और इस से बड़ा नुक़सान और क्या होगा कि प्यारे आक़ा के दांत मुबारक शहीद हो गए।
इस ऐतिहासिक तथ्य के आलोक में हमें यह अच्छी तरह से समझना चाहिए कि पैग़ंबर के ज़माने में भी ऐसे लोग थे जिनकी मंशा ग़लत करने की नहीं थी, लेकिन जब उन्होंने पैग़ंबर के आदेश का उल्लंघन किया, तो उनकी ग़लतियों से पूरी कम्युनिटी को नुक़सान पहुंचा।
हम इतिहास में नीचे आते हैं तो यहाँ भी यही देखने को मिलता है, दिल का हाल तो अल्लाह को मालूम है, लेकिन टीपू सुल्तान की शहादत भी अपनों की ही ग़लती से हुयी और मीर जाफ़र के विश्वासघात की कहानियों को कौन नहीं जानता है।
हमें यह समझ लेना चाहिए कि 1187 में सलीबी शासकों की सेना को अय्यूबी सेना ने पराजित किया था। उस समय सलीबी इंटेलिजेंस के प्रमुख हरमन ने अय्यूबी सेना के कमांडर को अपनी गिरफ़्तारी के समय सुंदर लड़कियों और बहुत सारा सोना पेश करके भागने की पेशकश की, लेकिन कमांडर ने मना कर दिया। गिरफ़्तार करने वाले कमांडर को सलाम करते हुए हरमन ने सुल्तान से कहा: "सुल्तान मोअज़्ज़म! "यदि आप के सभी कमांडर इस चरित्र के हैं, जिस ने मुझे पकड़ा है, तो मैं आपको विश्वास दिलाता हूं कि कोई भी बड़ी से बड़ी सेना आपको हरा नहीं सकती है"
हरमन ने कहा। मेरी नज़र इंसान की फ़ितरती कमज़ोरियों पर रहती है, हां, मैंने आपके कमांडर के ख़िलाफ़ उसी हथियार का इस्तेमाल किया था, जो अब तक हम करते आ रहे थे। मेरा मानना है कि जब ये कमज़ोरियाँ एक सेनापति में विकसित या निर्मित होती हैं तो हार उस के माथे पर लिखा दी जाती है।
सुल्तान मोअज़्ज़म! ये जंग जो हम लड़ रहे हैं, यह काबे और कलीसे की जंग है, जो हमारी मौत के बाद भी जारी रहेगी। अब कोई जंग मैदान में नहीं लड़ी जाएगी, हम मुसलमानों के दिल व दिमाग़ पर क़ब्ज़ा करेंगे, उनकी धार्मिक आस्थाओं तक पहुंचेंगे, हमारी लड़कियां, हमारी तहज़ीब जिसे आप बेहयाई कहते हैं, वह इस्लाम की दीवारों में छेद करने का काम करेंगी, फिर मुसलमान अपनी सभ्यता से नफ़रत और यूरोप से मोहब्बत करेंगे। आप उस समय को नहीं देख पाएंगे, न मैं देखूंगा, हमारी आत्मा इसे देखेगी। (सोशल मीडिया के संदर्भ में)
यह पोस्ट हमें कई संदेश देती है, ऐसा तो नहीं है कि हरमन की भविष्यवाणी हमारे लिए थी? हमें ख़ुद को जवाबदेह ठहराने की ज़रूरत है, क्योंकि बद्र का इतिहास हमें बताता है कि जब इस्लाम दुश्मनों ने मुसलमानों पर जंग थोप दी और लड़ाई टाली नहीं जा सकी तो, अल्लाह के रसूल ने चश्मा पर क़ब्ज़ा करने की योजना बनाई। जंग की सारी तैयारियाँ पूरी कर लीं, फिर वह अपने रब के दरबार में सजदे में गिड़गिड़ाये, मिन्नत की, "ऐ अल्लाह, आज बदहाली की हालत में, मैं तेरे दीन के लिए आया हूँ। अगर 313 का एक समूह एक हज़ार के ख़िलाफ़ हार गया तो, क़ियामत के दिन तक ” इस धरती पर कोई तेरा नाम लेने वाला नहीं होगा” तब जिब्रील अमीन सहित फ़रिश्तों ने कमान संभाली और बद्र से लेकर हुनैन तक इस्लाम के दुश्मनों के दाँत खट्टे कर दिए।
इससे यह स्पष्ट होता है कि हमें पहले कुछ करने की ज़रूरत है, फिर अल्लाह पर भरोसा काम आएगा। सामाजिक/राजनीतिक मामलों में हमारा अल्लाह पर विश्वास इतना प्रबल हो गया है कि कोई कोशिश/कार्य किये बिना ही उम्मीद करते हैं सबकुछ ठीक हो जाएगा, यही काम हम निजी जीवन में नहीं करते हैं, क्यों नहीं भरोसा करते कि कोई आएगा और खाना पका कर मुंह में डाल कर चला जायेगा।
स्वतंत्र भारत में मुसलमानों के लिए सबसे बड़ी समस्या उनका राजनीतिक अस्तित्व है। हालांकि गांधीजी से लेकर डॉ अम्बेडकर तक सभी महान समाज सुधारकों ने माना है कि एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में आप राजनीति के बिना कुछ नहीं कर सकते, लेकिन दुख की बात यह है कि स्वतंत्र भारत के 75 साल बाद भी हम में से अधिकांश राजनीति का अर्थ नहीं समझ सके। विभाजन के बाद भी हम ठोकर पे ठोकर खाते रहे और अपनी गलतियों से कभी नहीं सीखा।
मौलाना आज़ाद ने पहला सामूहिक राजनीतिक पश्चाताप कराया, फिर कांग्रेस को मीरे कारवां माना, 1967 में ह० मौलाना अली मियां समझ गए कि किसी भी राजनितिक दल पर आँख मूँद लेना सबसे बड़ी ग़लती है। मौलाना ने कहा था कि “हमें राजनीतिक रूप से मज़बूत होना होगा, क्योंकि सरकारें जिस तरह से निर्णय ले रही हैं और जीवन के हर क्षेत्र में हस्तक्षेप कर रही हैं, समान नागरिक संहिता से लेकर नई एजुकेशन पालिसी तक, सब कुछ संभव लगता है” लेकिन हम इससे भी नहीं सीखे।
ग़लतियों के बाद भी हम ग़लती कर रहे हैं, इसलिए हमें यह याद रखना होगा कि “प्रकृति कभी भी उन लोगों की स्थिति नहीं बदलती है जिन्हें अपनी स्थिति बदलने का एहसास तक न हो” जो लोग राजनीतिक रूप से डॉ फरीदी साहब के कंधों पर सवार थे, बाद में उन लोगों ने ही उन्हें धोखा दिया और उनकी मृत्यु के साथ, उनका आंदोलन भी मर गया।
हम ने कांग्रेस को अपना मसीहा माना, कांग्रेस ने हमारे साथ जो किया उसका रिपोर्ट कार्ड हमें पकड़ा दिया, 60 वर्षों में यह आप के भरोसे का प्रतिफल है कि आपकी हालत दलितों से खराब या उनके जैसी हो गई, लेकिन हमारा उच्च वर्ग जो सरकारी मलाई खाता रहा, सरकार के कुकर्मों का उन्होंने यह कह कर बचाव किया कि विभाजन के समय हमारा क्रीम वर्ग पाकिस्तान चला गया, इसलिए ऐसा होना तय था।
उन्होंने कभी कांग्रेस से सवाल पूछने की हिम्मत नहीं की और भाजपा का डर दिखाकर पूरे समाज को क़ुर्बान करते रहे। कांग्रेस की सरकारों में बड़ी तादाद में पढ़े-लिखे मुसलमानों को आतंकवादी बना कर जेलों में डाल दिया गया, कांग्रेस ने उन शहरों को निशाना बनाया जहां मुसलमानों की आर्थिक स्थिति अच्छी थी।
हमें यह अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि हमें अपने सच्चाई और न्याय के पिछले पन्नों को पलटना होगा, तब हमारा रब हम से दुनिया की अगुवाई का काम लेगा। मौजूदा हालात किसी से छिपे नहीं हैं, अगर हम ने बहादुरी से हालात का सामना नहीं किया तो हालात और भी ख़राब होंगे। निराश होने और दुबक कर घरों में बैठने का समय नहीं है।
लोकतंत्र में, यदि हमारे पास मतदान करने की क्षमता है, तो हमें वोट लेने का हुनर भी विकसित करना होगा। यदि आपके पास स्थिति को बदलने की क्षमता नहीं है, तो ख़ुद को एक युवा कहना बंद कर देना चाहिए। हम जहां कहीं भी हों, वहीँ क्रांति लाएं। भगत सिंह और अशफ़ाक़ की मिसाल हमारे सामने है, हमें दरिया बनना है, दरिया अपना रास्ता ख़ुद बनाता है।
हम किसी भी राजनीतिक दल में हों, अगर हमें डर है कि हमें अल्लाह के सामने जवाब देना है, तो हम कम्युनिटी की समस्याओं को पूरी ईमानदारी से रखेंगे। अगर हमने ऐसा नहीं किया और अन्य राजनीतिक दल अगर पूरी तरह से बीजेपी के नक़्शेक़दम पर चल पड़े, यानी मुसलमानों को अलग-थलग करना, तो क्या होगा? क्या हमने कभी सोचा है?
इसलिए हमें पहले अपनी क़यादत/ नेतृत्व को विकसित करना ही होगा, ताकि वह हमारे मामले को पूरी ईमादारी से उठायें, या फिर हम जहाँ भी हों, वहीँ इंक़लाब लाएं। हम भाजपा में हों, कांग्रेस में हों या किसी अन्य राजनीतिक दल में हों, हमें उम्मत के प्रति ईमानदार रहना होगा। भारत का संविधान हमारे पास मज़बूत हथियार है, हमें इसके अनुसार ही हर क़दम आगे ले जाना होगा।
हमें अपने अंदर का मीर जाफ़र नहीं बनना चाहिए, लेकिन हमें मुहम्मद बिन क़ासिम से सीखना चाहिए और प्यारे आक़ा के संदेशों को अपना चरित्र बनाना चाहिए, कि पहले पूरी योजना बनाएं, फिर अल्लाह पर भरोसा करें। क्या हम मुलायम सिंह द्वारा डॉ. मसूद के अपमान को भूल गए? क्या हमें याद नहीं है कि अखिलेश के मंच पर मुसलमानों को कैसे बेइज़्ज़त किया गया? क्या हमने तिलक तराज़ू के नारे को सुना अनसुना कर दिया?
हमें अतीत को याद करके ही भविष्य की योजना बनानी है और हमें अपनों की अज्ञानता पर नज़र रखनी है, क्योंकि अगर मुसलमानों के मसीहा होने का दावा करने वालों ने कोई गंभीर योजना बनाकर भविष्य के लिए ख़ाका तैयार किया होता, तो आज भाजपा के आने के बाद वह घरों में दुबक कर नहीं बैठ जाते, इसलिए हमें इस दिशा में गंभीर चिंता की ज़रूरत है, तब कुछ होगा।
हमें अपने नेताओं से भी सवाल करते रहना होगा ताकि, वह भी चौकस रहें की कम्युनिटी को जवाब देना है। हम उन्हें बेलगाम छोड़ कर अपनी आने वाली पीढ़ियों का भला नहीं करेंगे।
कलीमुल हफ़ीज़, नई दिल्ली