पीएफआई के अलावा अन्य साम्प्रदायिक दलों पर बैन क्यूं नहीं?
अब कोई कुछ भी कहे मुसलमानों के दिल में तो यही है कि यह इकतरफा फैसला है और आरएसएस जैसे कई हिन्दू संगठनों पर बैन क्यूं नहीं लगाया गया है। बहुसंख्यक समाज के बु़द्धिजीवी वर्ग का भी यह विचार है कि आठ साल से क्यूं मोदी सरकार सोई रही और अब ठीक चुनावों से पहले यह कार्रवाई की गई। यह एक राजनीतिक फैसला है जो आने वाले चुनावों को लेकर लिया गया है।
प्रिय पाठको, यह कहावत तो सबने सुनी है कि जिसकी लाठी उसकी भैंस। क्या हिन्दुस्तान में ऐसा नहीं लगता कि सब अजूबा ही हो रहा है। भाजपा यानि मोदी शासन काल में देश में असंख्य हिन्दू सेनाएं, दल बने हैं जिनका मुख्य उद्देश्य अल्पसंख्यक समाज को डराना और आपस में घृणा फैलना रहा है। केंद्र सरकार ने पॉपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया (पीएफआई) और उसके सहयोगी दलों को 28 सितम्बर को पांच साल के लिए गैरकानूनी संगठन घोषित कर दिया है।
इस फैसले पर पूरे देश में प्रतिक्रियाएं हो रही है। सोशल मीडिया और अन्य माध्यमों से जानकारी मिल रही है। वहीं देश के प्रमुख नेताओं ने जो प्रतिक्रियाएं दी हैं उनमें सबसे पहले केरल कांग्रेस के सांसद कोडिकुन्नील सुरेश का बयान है। कोडिकुन्नील सुरेश ने कहा कि सिर्फ पीएफआई पर ही बैन क्यों लगाया गया। आरएसएस पर भी बैन लगाया जाना चाहिए। कांग्रेस सांसद ने आगे कहा, आरएसएस पूरे देश में हिंदू सांप्रदायिकता फैला रहा है। पीएफआई और आरएसएस एक जैसे हैं इसलिए सरकार को इन दोनों पर बैन लगा देना चाहिए।
पत्रकार सागरिका घोष का कहना है कि 8 साल से बीजेपी केंद्र की सत्ता में है लेकिन इस तरफ सरकार ने ध्यान क्यूं नहीं दिया। लेकिन जब फिर से एक चुनावी सरगर्मी तेज होने लगी तो सरकार को इस संगठन की याद आ गई। उनका कहना है कि गुजरात, हिमाचल और कर्नाटक चुनाव की वजह से ये बैन लगाया गया है।
लालू प्रसाद यादव ने पीएफआई के बैन पर प्रतिक्रिया देते हुए कहा कि ये भाजपा वाले हिन्दू मुस्लिम करके देश को तोड़ रहे हैं। उन्होंने कहा कि सबसे पहले आरएसएस को बैन करो। पहले भी दो बार आरएसएस पर बैन लग चुका है। वहीं समाजवादी पार्टी नेता सफीकुर्रहमान वर्क ने पीएफआई पर बैन को अनुचित और सरासर गलत बताया है। छापेमारी में तकरीबन 250 लोगों को गिरफ्तार किया गया है। अब कोई कुछ भी कहे मुसलमानों के दिल में तो यही है कि यह इकतरफा फैसला है और आरएसएस जैसे कई हिन्दू संगठनों पर बैन क्यूं नहीं लगाया गया है। बहुसंख्यक समाज के बु़द्धिजीवी वर्ग का भी यह विचार है कि आठ साल से क्यूं मोदी सरकार सोई रही और अब ठीक चुनावों से पहले यह कार्रवाई की गई। यह एक राजनीतिक फैसला है जो आने वाले चुनावों को लेकर लिया गया है।
केंद्र सरकार ने पीएफआई पर बैन का जो कारण गिनाया है उसमें अहम इसके लिंक सीरिया और इराक में सक्रिय आईएसआईएस से जुड़े होने का हैं। गृह मंत्रालय के नोटिफिकेशन के मुताबिक इस्लामिक स्टेट के साथ जुड़ने के बाद पीएफआई के लोग को अरेस्ट हुए तो कुछ मारे भी गए। इन लोगों का लिंक बांग्लादेश के आतंकी संगठन जमात उल मुजाहिद्दीन से भी जोड़ा गया है।
गृह मंत्रालय द्वारा जारी अधिसूचना के अनुसार, पीएफआई के सहयोगी संगठनों में रिहैब इंडिया फाउंडेशन (आरआईएफ), कैंपस फ्रंट ऑफ इंडिया (सीएफआई), ऑल इंडिया इमाम काउंसिल (एआईआईसी), नेशनल कॉन्फेडरेशन ऑफ ह्यूमन राइट्स ऑर्गनाइजेशन (एनसीएचआरओ), नेशनल वीमेन फ्रंट, जूनियर फ्रंट, एम्पावर इंडिया फाउंडेशन और रिहैब फाउंडेशन, केरल पर भी प्रतिबंध लगा दिया गया है।
केंद्र ने गैरकानूनी गतिविधि रोकथाम अधिनियम (यूएपीए), 1967 के तहत पॉपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया को एक गैरकानूनी संगठन घोषित किया है। सरकार के आदेश के साथ ही पीएफआई को यूएपीए की धारा 35 के तहत 42 प्रतिबंधित आतंकी संगठनों की सूची में जोड़ा गया है।
सरकार के इस फैसले का एक तरफा बीजेपी नेताओं ने स्वागत किया लेकिन विपक्ष के कई नेताओं और दलों ने सवाल उठाया कि सिर्फ पीएफआई पर बैन क्यों? जबकि देश में कई और भी राश्ट्रविरोधी दल है जो देश में सांप्रदायिक उत्पात मचाते रहे हैं।
जहां तक कई मुस्लिम संस्थाओं का यह विचार है कि पीएफआई तथा उनसे जुड़े अन्य संगठन का मुख्य उद्देश्य मस्लिम समाज का विकास है और अन्य कोई एजेन्डा नहीं है। यह एक सोची समझी रणनीति को लेकर पीएफआई के माध्यम से मुस्लिम समाज को और कमजोर बनाना है।
अंत में हम यह कह सकते हैं कि देश में हजारों गैर सरकारी संगठन कार्य कर रहे हैं और उनका मुख्य उद्देश्य समाज सुधार और समाज उत्थान ही रहता हैं। यह भी हर संगठन जानता है कि असामाजिक एवं गैरकानूनी कार्य कभी स्वीकार्य नहीं रहे है।
अब सवाल यह उठता है कि क्या एक मुस्लिम इस तरह की नापंसदीदा हरकत कर सकता है जिसमें यहां भी बदनामी और आखरत में भी जिल्लत।
इसलिए यह मानना बहुत मुश्किल है कि पीएफआई का किसी आतंकी संगठन से लिंक है। यहां फैसला अंतिम नहीं, पल में फैसला जरूर हक का होगा।
-मोहम्मद इस्माइल, एडीटर