अब देश की राजधानी दिल्ली में "नाम प्लेट" विवाद को भाजपा के नेता दे रहे हैं हवा।
असम के सीएम बिसवा, यूपी में सीएम योगी और अन्य भाजपा के नेतागण समाज का कितना कल्याण कर रहे हैं, यह तो सभ्य समाज ही बता सकता है। लेकिन आज हम बात कर रहे हैं दिल्ली के विनोद नगर की जहां भाजपा निगम पार्षद रविन्दर सिंह नेगी क्षेत्र के लोगों के बीच जाकर मुसलमान दुकानदारों से दुकान का नाम बदलने की बात कह रहे हैं. एक विडियो में उन्हें यह कहते हुए सुना जा रहा है कि तुमने गढ़वाल पनीर क्यूं रखा है. तुम्हारे पास कौन सा आदमी गढ़वाल से है, इत्यादि.
विनोद नगर पार्षद रविन्दर सिंह नेगी जानबूझकर यह पूछ रहे हैं कि तुम्हारा नाम क्या है जबकि उन्हें यह साफ मालूम है कि यहां मुसलमानों की दुकानें हैं. इसका क्या अर्थ निकाला जाए. जब उन्होंने पूछा कि तुम मुसलमान हो तुमने गढ़वाल पनीर के नाम से दुकान का नाम क्यूं रखा है. नाम बदल लो, ऐसा दोबारा नही होना चाहिए. अगर देखें तो दुकान का नाम रखना यह व्यक्तिगत है इससे किसी वर्ग विशेष को क्या आपत्ति हो सकती है. आगरा के पेड़े, हापुड़ के पापड़, बनारस की साड़ियां, इलाहबाद के अमरुद, लाहौर के सूट, गढ़वाल का पनीर, हिमाचल का घी इत्यादि नाम से दुकान का नाम रखा जा सकता है जिसमे किसी को एतराज नही होना चाहिए. और दूसरी बात यह है की क्या रविंदर सिंह नेगी को यह अधिकार है की वो दुकान का नाम बदलने के लिए धमका सके, ये अधिकार किसने उन्हें दिया?
रविंदर सिंह नेगी शायद भूल गए हैं की उनका काम अपने वार्ड की साफ़ सफाई रखना है. उन्हें पूरी ईमानदारी से अपना काम करना चाहिए, लेकिन शायद ये ताकत के नशे में चूर हैं, क्यूंकि ये सत्ताधारी पार्टी से जो हैं? लेकिन नेगी जी याद रखिये जो जनता कुर्सी पर बैठना जानती है वो उतरना भी जानती है.
आज सबसे ज्यादा समाज में सौहार्द बनाने की जरूरत है मगर कुछ लोग सस्ती लोकप्रियता के लिए नीच हरकत पर आ जाते हैं. देश के किसी न किसी क्षेत्र में एक तरफ भाईचारा, सामाजिक सौहार्द, शांती, सदभाव के लिए हर वर्ग के लोग एक जुट होकर काम कर रहे हैं दूसरी तरफ कुछ लोग राजनीतिक और आर्थिक लाभ के लिए एक वर्ग विशेष में घृणा, नफरत, अशांती और द्वेष की भावना का पालन पोषण कर रहे हैं जिसका आगे चलकर फायदा लिया जा सके, अगर सीधी बात करें तो इसे वोटों का धुर्वीकरण करना कहते हैं.
अक्सर देखा गया है कि जब भी कुछ अप्रिय घटना होने के आसार नज़र आ रहे होते हैं तो उसे उसी वक़्त शांत नही किया जाता. जब सीमा पार हो जाती है या घटना घट चुकी होती है तब लीपापोती के लिए पुलिस और अन्य संस्थाएं आती हैं कुछ बेकसूर मारे जाते हैं, कुछ जेलों में चले जाते हैं.
View this post on Instagram
कल ही की बात है, शायद कुछ लोग भूल गए होंगे, मगर वह कैंसे भूल सकता है जिसका कोई प्रिय मरा होगा, जिसका जानी और माली नुकसान हुआ होगा. कुछ राजनीतिक लाभाथीयों, असामाजिक, अधार्मिक समाज के दुश्मनों के भाषणों के कारण राजधानी दिल्ली में दंगे हुए. क्या हुआ, मरने वाले मरे, कुछ जेलों में हैं वह भी चंद लोगों के सांप्रदायिक भाषणों के कारण.
-असमा शेख़, रिपोर्टर