इंदिरा की तरह बीबीसी पर हाथ डालना मोदी को भारी पड़ेगा
नरेंद्र मोदी के सत्ता में आने के बाद से दुनिया में मीडिया की स्वतंत्रता के मामले में भारत 130वें पायदान से फिसल कर अब 152 पर लुढ़क गया है. सरकारी और दरबारी लोग अब पलटकर बी.बी.सी. पर आरोप लगा रहे हैं, उसे साम्राज्यवाद का एजैंट बता रहे हैं,
योगेन्द्र यादव :
मैं बी.बी.सी.सुनते हुए बड़ा हुआ. घर में नियम था कि रोज शाम 8 बजे खाना होता था. साथ में रेडियो पर बी.बी.सी. हिंदी सर्विस की खबर और विश्लेषण को सुना जाता था. ओंकारनाथ श्रीवास्तव खबर पढ़ते थे, रत्नाकर भारतीय विश्लेषण करते थे और दिल्ली से मार्क टुली खबर भेजते थे. राजस्थान के एक छोटे से सीमावर्ती शहर श्रीगंगानगर में रहने के बावजूद वर्षों तक हर शाम बी.बी.सी. सुनने के कारण देश और दुनिया से कटा हुआ महसूस नहीं किया. बी.बी.सी. के चलते बचपन में ही समसामयिक विषयों पर राय बनाना सीखा, चाहे मामला वियतनाम युद्ध का हो या फिर बंगलादेश का, चाहे वाटर गेट घोटाला हो या फिर जयप्रकाश आंदोलन.
मुझे याद है एमरजैंसी के अंधकार के दिनों में बी.बी.सी. की खबर सच का एकमात्र प्रकाश होती थी. आकाशवाणी बीस सूत्री कार्यक्रम की सफलता का सरकारी मिथ्या प्रचार करती थी. अखबार इंदिरा गांधी के सामने बिछे रहते थे. सिर्फ बी.बी.सी. से पता चलता था कि एमरजैंसी के विरोध में देश और दुनिया में क्या किया और बोला जा रहा था. जाहिर है इंदिरा गांधी की सरकार बी.बी.सी. की इस भूमिका से बौखलाई रहती थी. इंदिरा गांधी ने एक बार नहीं दो बार बी.बी.सी. को भारत में बैन किया. मार्क टुली को देश निकाला दे दिया गया. लेकिन ध्वनि तरंगों से आने वाले बी.बी.सी. के सच को इंदिरा गांधी रोक न पाईं. उसी बी.बी.सी. ने इंदिरा गांधी की हार की खबर देश तक पहुंचाई.
जिस दिन 1977 के ऐतिहासिक चुनाव में वोट की गिनती हो रही थी उस दिन देर शाम तक आकाशवाणी केवल आंध्र प्रदेश में कांग्रेस की बढ़त की खबर दे रही थी. बी.बी.सी. ने पहली बार खबर दी कि पूरे उत्तर भारत में कांग्रेस हार रही है और खुद संजय गांधी और इंदिरा गांधी भी अपने चुनाव क्षेत्र में पिछड़ रहे हैं. बी.बी.सी. ने ही ऑप्रेशन ब्ल्यू स्टार का सच देश के सामने रखा. विधी की विडंबना देखिए कि उसी बी.बी.सी. ने इंदिरा गांधी की मृत्यु की प्रामाणिक सूचना सबसे पहले दुनिया को दी. बी.बी.सी. की खबर भले ही लंदन से ब्रॉडकास्ट की जाती थी लेकिन उसमें विदेशी होने की बू नहीं थी.
ब्रिटिश राजनीति की खींचतान और पश्चिमी देशों के काले कारनामे पर उतनी ही खुलकर चर्चा होती थी जितनी भारतीय राजनीति पर. शहरी बुद्धिजीवियों में ही नहीं गांव देहात की चौपाल में भी बी.बी.सी. सच की कसौटी मानी जाती रही है. टी.वी. युग आने के बाद बी.बी.सी. का जलवा कुछ कम हुआ है, लेकिन पूरी दुनिया में उसकी प्रतिष्ठा बरकरार है. एक बार नहीं अनेकों बार बी.बी.सी. ने ब्रिटिश सरकार और यहां तक कि ब्रिटेन के हितों को दरकिनार करते हुए स्वतंत्र खबरें प्रसारित कीं. ब्रिटेन और अर्जेंटीना के बीच हुए फॉकलैंड युद्ध के दौरान बी.बी.सी. ने ब्रिटिश फौज की तरफदारी करने से इंकार कर दिया और ब्रिटेन की संसद तक में उस पर देशद्रोह के आरोप लगे.
बी.बी.सी. के डायरैक्टर ने अनेकों बार ब्रिटेन के प्रधानमंत्री से खुलकर असहमति व्यक्ति की. इस इतिहास के आधार पर बी.बी.सी. ने अपनी प्रतिष्ठा बनाई और बचाई है. जैसे इंदिरा गांधी की सरकार ने बी.बी.सी. पर हाथ डाला था वैसे ही आज मोदी सरकार ने बी.बी.सी. के खिलाफ कार्रवाई की है. इंकम टैक्स नियमों के उल्लंघन का बहाना बनाकर बी.बी.सी. के दिल्ली और मुंबई दफ्तरों पर धावा बोला गया. 3 दिन तक वहां सरकारी अफसर बैठे रहे, बी.बी.सी. पत्रकारों के फोन बंद कर दिए गए, उनके लैपटॉप और कम्पनी के सभी कम्प्यूटरों का मुआयना किया गया. सरकारी प्रवक्ता मासूमियत से कहते हैं कि बी.बी.सी. पर ‘छापा’ नहीं मारा गया है, केवल उनका ‘सर्वे’ किया जा रहा है.
लेकिन बच्चा-बच्चा जानता है कि मोदी सरकार बी.बी.सी. से बदला ले रही है. प्रधानमंत्री को खुंदक इस बात की है कि बी.बी.सी. ने पिछले महीने गुजरात के 2002 के दंगों में मुसलमानों के कत्लेआम के बारे में एक डॉक्यूमैंट्री फिल्म दिखाई है जिससे तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की भूमिका पर सवाल उठते हैं. पत्रकारों के तमाम स्वतंत्र संगठनों प्रैस क्लब ऑफ इंडिया और संपादकों की शीर्षस्थ संस्था एडिटर्स गिल्ड ने बी.बी.सी. पर की गई कार्रवाई को देश में स्वतंत्र पत्रकारिता का गला घोंटने की एक और मिसाल बताया है. दुनिया भर की मीडिया ने इस घटनाक्रम पर टिप्पणी की है, भारत में मीडिया की स्वतंत्रता खत्म होने पर चिंता व्यक्त की है.
नरेंद्र मोदी के सत्ता में आने के बाद से दुनिया में मीडिया की स्वतंत्रता के मामले में भारत 130वें पायदान से फिसल कर अब 152 पर लुढ़क गया है. सरकारी और दरबारी लोग अब पलटकर बी.बी.सी. पर आरोप लगा रहे हैं, उसे साम्राज्यवाद का एजैंट बता रहे हैं, भारत की राजनीति में विदेशी हाथ का खतरा दिखा रहे हैं. ठीक वैसे ही जैसे एमरजैंसी से पहले और उसके दौरान इंदिरा गांधी के दरबारी हर छोटी-बड़ी बात में विदेशी हाथ ढूंढा करते थे.
जाहिर है कि बी.बी.सी. पर यह हमला प्रधानमंत्री की शह के बिना नहीं हो सकता. विडंबना यह है कि खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 2013 में कह चुके हैं कि जनता आकाशवाणी और दूरदर्शन की बजाय बी.बी.सी. पर भरोसा करती रही है. सवाल यह है कि क्या सरकार इतनी बौखला गई है कि वह सच को पूरी तरह से बंद करने की मुहिम में जुटी है? क्या एमरजैंसी के विरुद्ध भूमिगत होकर काम करने वाले कार्यकत्र्ता नरेंद्र मोदी बी.बी.सी. की आवाज बंद करने की नाकाम कोशिश के सबक भूल गए हैं?