अजमेर शरीफ दरगाह को मंदिर बताने वाली याचिका पर कोर्ट का बड़ा फैसला: क्या यह संविधान का उल्लंघन है?
हाल ही में अजमेर शरीफ दरगाह को मंदिर बताने वाली याचिका को निचली अदालत ने स्वीकार कर लिया है. यह मामला भाजपा शासित राज्यों में निचली अदालतों द्वारा उठाए गए एक गंभीर सवाल का प्रतीक बन चुका है. सवाल यह है कि क्या न्यायपालिका के उच्च पदों पर बैठे लोग भी कानून और संविधान का पालन कर रहे हैं या उनका निर्णय राजनीतिक दबाव और विचारधारा से प्रभावित हो रहा है. यह मामला सीधे तौर पर संविधान और पूजा स्थल अधिनियम के उल्लंघन से जुड़ा हुआ है, जिसे 15 अगस्त 1947 से पहले बनी किसी संरचना के धार्मिक चरित्र को बदलने से रोकता है.
पूर्व चीफ जस्टिस चंद्रचूड़ की टिप्पणी और उसके बाद की हलचल
2022 में भारत के पूर्व चीफ जस्टिस, जस्टिस चंद्रचूड़ ने एक महत्वपूर्ण टिप्पणी की थी, जो आज के विवाद से सीधा जुड़ा हुआ है. उन्होंने ज्ञानवापी मस्जिद मामले की सुनवाई के दौरान कहा था कि पूजा स्थल अधिनियम 15 अगस्त 1947 के पहले बनी किसी संरचना के धार्मिक स्वरूप को बदलने से नहीं रोकता. यह टिप्पणी न केवल न्यायिक इतिहास में महत्वपूर्ण मानी गई, बल्कि इससे कई तरह के कानूनी और राजनीतिक सवाल भी उठे.
जैसे ही यह टिप्पणी हुई, विवाद और विवादित याचिकाओं का सिलसिला शुरू हो गया. दरअसल, जब जस्टिस चंद्रचूड़ देश की सबसे बड़ी न्यायिक कुर्सी पर बैठे थे, तो उनका यह बयान न्यायिक स्वतंत्रता और संविधान के दृष्टिकोण से बेहद संवेदनशील माना गया. उनकी टिप्पणी ने यह सवाल खड़ा किया कि क्या हमारे न्यायालयों में न्याय के बजाय अन्य विचारधाराओं का असर है? क्या न्यायालयों का फैसला राजनीतिक विचारधारा से प्रभावित हो रहा है?
अजमेर शरीफ दरगाह पर मंदिर होने का दावा: क्या यह संविधान और कानून का उल्लंघन है?
अजमेर शरीफ दरगाह पर शिव मंदिर के होने का दावा करने वाली याचिका पर अजमेर सिविल न्यायालय पश्चिम ने एक बड़ा फैसला सुनाया है. इस फैसले में अदालत ने इस याचिका को सुनने योग्य माना और संबंधित पक्षों को नोटिस जारी किया है. अजमेर दरगाह, जो कि 800 साल पुरानी है, भारतीय इतिहास का एक अहम हिस्सा है. यह दरगाह दरअसल सूफी संत ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की समाधि है, जो 12वीं सदी के अंत में भारत आए थे. ऐसे में दरगाह को मंदिर बताने का दावा न केवल धार्मिक संवेदनाओं को आहत करता है, बल्कि यह संविधान और पूजा स्थल अधिनियम का भी उल्लंघन करता है.
भारत में पूजा स्थल अधिनियम 1991 के तहत यह स्पष्ट किया गया है कि 15 अगस्त 1947 के बाद से किसी धार्मिक स्थल के धार्मिक स्वरूप को बदलने की कोशिश करना अवैध होगा. इस अधिनियम के तहत किसी भी धार्मिक स्थल का स्वरूप, चाहे वह मस्जिद हो, मंदिर हो या दरगाह, बदलने की कोशिश करना संविधान के खिलाफ माना जाएगा.
लेकिन अब अजमेर की निचली अदालत ने इस याचिका को सुनने योग्य मानते हुए नोटिस जारी कर दिया है, जिससे यह सवाल उठता है कि क्या अदालत इस कानून का उल्लंघन कर रही है? जब एक ऐतिहासिक और धार्मिक स्थल पर इस तरह का दावा किया जाता है, तो यह न केवल सांप्रदायिक तनाव को बढ़ावा देता है, बल्कि यह हमारे धर्मनिरपेक्ष संविधान का भी उल्लंघन है.
अजमेर दरगाह और इतिहास का सवाल
अजमेर शरीफ दरगाह एक ऐतिहासिक स्थल है जो 800 से भी अधिक वर्षों से मौजूद है. यह भारत में सूफी परंपरा का एक महत्वपूर्ण केंद्र है. सूफी संत ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह ने भारत में इस्लाम के सुसंस्कृत रूप को फैलाया, और भारत के विभिन्न हिस्सों से हजारों-लाखों लोग यहां आकर श्रद्धा अर्पित करते हैं.
यह दरगाह भारत में धार्मिक विविधता और सहिष्णुता का प्रतीक रही है. ख्वाजा साहब की दरगाह पर हर साल लाखों श्रद्धालु आते हैं, चाहे वे किसी भी धर्म या संप्रदाय से हों. लेकिन अब इस पर मंदिर होने का दावा किया जा रहा है, जो सीधे तौर पर सांप्रदायिक और धार्मिक सौहार्द को चुनौती देने वाला है.
क्या यह मुस्लिम समुदाय के खिलाफ नफरत फैलाने की कोशिश है?
जब से यह विवाद उठाया गया है, तब से यह साफ देखा जा रहा है कि यह सिर्फ एक कानूनी मामला नहीं है, बल्कि यह मुस्लिम समुदाय के खिलाफ नफरत फैलाने और उनके धार्मिक स्थलों को निशाना बनाने का एक तरीका बनता जा रहा है. जिस प्रकार से विभिन्न मुस्लिम धार्मिक स्थलों को निशाना बनाया जा रहा है, वह किसी बड़ी साजिश का हिस्सा लगता है.
क्या यह सब एक सोची-समझी रणनीति का हिस्सा है, जिससे समाज में तनाव और विवाद पैदा किया जाए? क्या यह मुस्लिम समुदाय को अपनी धार्मिक पहचान और ऐतिहासिक धरोहर से दूर करने की कोशिश नहीं है? यह सवाल अब खुद को बार-बार उठाता है.
अदालत का फैसला और समाज पर असर
अजमेर दरगाह पर मंदिर के दावे की याचिका पर अदालत का फैसला उस समय आया है, जब देश में धार्मिक तनाव बढ़ रहा है. अदालत का यह फैसला न केवल संविधान के खिलाफ जा रहा है, बल्कि इससे समाज में और भी ज्यादा विघटन हो सकता है.
यदि इस तरह के फैसले होते हैं, तो यह सवाल उठता है कि क्या भारतीय न्यायपालिका अपनी स्वतंत्रता और निष्पक्षता को बनाए रखेगी या उसे किसी राजनीतिक विचारधारा के दबाव में आकर फैसले लेने पड़ेंगे. हमें यह समझने की आवश्यकता है कि न्यायपालिका का काम केवल कानून के तहत फैसला करना है, न कि समाज को और अधिक ध्रुवीकृत करना.
संविधान और पूजा स्थल अधिनियम का उल्लंघन
पूजा स्थल अधिनियम 1991 के अनुसार, 15 अगस्त 1947 के बाद बने किसी भी धार्मिक स्थल के धार्मिक स्वरूप को बदलने की कोशिश करना कानूनी रूप से अवैध है. यदि अदालत इस तरह के दावों पर सुनवाई करती है, तो यह सीधे तौर पर इस अधिनियम का उल्लंघन होगा.
भारत का संविधान धार्मिक समानता और सहिष्णुता की बात करता है, और पूजा स्थल अधिनियम भी इसी भावना से बना था. ऐसे में यदि अदालत इस तरह के दावों को स्वीकार करती है, तो यह संविधान के मूल्यों के खिलाफ होगा और भारतीय समाज के लिए खतरे की घंटी साबित हो सकता है.
क्या भविष्य में और विवाद होंगे?
अजमेर शरीफ दरगाह पर मंदिर होने के दावे की याचिका को लेकर अदालत के इस फैसले के बाद यह सवाल उठता है कि क्या आने वाले दिनों में इस तरह के और विवाद उठेंगे. क्या अन्य धार्मिक स्थल भी ऐसे दावों का शिकार होंगे? यह सभी सवाल अब हमारे सामने खड़े हैं.
समाज में धार्मिक तनाव बढ़ने से न केवल हमारी सामाजिक समरसता पर असर पड़ेगा, बल्कि यह हमारे देश के लोकतंत्र और संविधान की मूल भावना के खिलाफ भी होगा. हमें यह समझने की जरूरत है कि देश के हर धर्म, संप्रदाय और समुदाय का सम्मान करना हमारी जिम्मेदारी है.
निष्कर्ष
अजमेर शरीफ दरगाह पर मंदिर होने के दावे की याचिका पर अदालत का फैसला न केवल कानूनी रूप से संदिग्ध है, बल्कि यह संविधान और पूजा स्थल अधिनियम का भी उल्लंघन करता है. इस फैसले से भारतीय समाज में धार्मिक तनाव और विभाजन बढ़ने की आशंका है. हमें इस बात का ख्याल रखना चाहिए कि हमारे धार्मिक स्थल हमारी सांस्कृतिक धरोहर हैं, और हमें इनका सम्मान करना चाहिए.
-मोहम्मद इस्माइल, एडिटर