हल्द्वानी में ‘मस्जिद-मदरसे’ के ध्वस्तीकरण और उससे उपजी हिंसा की क्या न्यायिक जांच होगी?
हल्द्वानी के बनभूलपुरा इलाके में कथित ‘अवैध मस्जिद और मदरसे’ के ध्वस्तीकरण ने ज़िला प्रशासन की कार्यप्रणाली की कथित ख़ामियों को उजागर किया है. उत्तराखंड की भाजपा नेतृत्व वाली सरकार को भी इस मामले में अपना पक्ष स्पष्ट करना है कि जहां तक अल्पसंख्यक अधिकारों का सवाल है,
सुभाष गाताडे :
उत्तराखंड में हल्द्वानी के बनभूलपुरा इलाके में ‘अवैध मस्जिद और मदरसे’ के ध्वस्तीकरण से उठे सवाल लंबे समय तक विलुप्त नहीं होंगे. अब जबकि इलाके में प्रशासन की निगाह में शांति और अमन लौट रहा है, तब वह सवाल भी नए सिरे से गूंज रहे हैं कि ध्वस्तीकरण के उस ऑपरेशन को जिस तरह अंजाम दिया गया – जिसका नतीजा आधिकारिक तौर पर कम से कम 6 लोगों की मौत और कई लोगों के घायल होने में हुआ, जिसमें कई पुलिसकर्मी भी शामिल थे.
ये भी सवाल है कि कहीं उसमें गैर-जरूरी जल्दबाजी तो नहीं दिखाई गई और क्या यह इंसाफ का तकाज़ा नहीं है कि पूरे मामले की न्यायिक जांच की जाए, संभवत: सुप्रीम कोर्ट के ही किसी रिटायर्ड न्यायाधीश द्वारा ताकि मामले की तह तक पहुंचा जा सके.
तय बात है हिंसा किसी भी तरह से हो, उसे सही नहीं ठहराया जा सकता और जनता के हर विरोध आंदोलन को संविधान के दायरे में ही होना चाहिए और अगर किसी ने जान-बूझकर हिंसा को भड़काया है तो उस पर भी उचित कानूनी कार्रवाई होनी ही चाहिए.
बनभूलपुरा विगत लगभग सप्ताह-भर से सुखियों में है, अलबत्ता कुछ अलग कारणों से अभी महज एक साल से थोड़ा समय पहले हल्द्वानी के रेलवे लाइन के पास का यह इलाका एक जबरदस्त शांतिपूर्ण आंदोलन का साक्षी बना था, जिसने नागरिक समाज के एक हिस्से को भी अपने साथ जोड़ा था, मोमबत्तियों के साथ दिसंबर 2022 के उत्तरार्द्ध में वहां निकले जुलूस में स्थानीय पत्राकारों, समाजसेवियों के अनुसार 25 से 30 हजार लोग शामिल थे, जिसमें बच्चे- महिलाओं की तादाद काफी थी.
आंदोलन की परिणति आला अदालत द्वारा बनभूलपुरा के उन निवासियों के हक में हुई थी कि ‘जनता को बल के प्रयोग से विस्थापित नहीं किया जा सकता’.
आला अदालत की द्विसदस्यीय पीठ, जिसमें न्यायाधीश संजय किशन कौल और जस्टिस अभय एस. ओका शामिल थे – के यह लब्ज थे, जब उसने उत्तराखंड के उच्च अदालत के उस फैसले पर स्थगनादेश दिया था, जब बनभूलपुरा के निवासियों ने उनके यहां दस्तक दी थी.
ध्यान रहे सर्वाेच्च न्यायालय की पहल के ऐसे कई फैसले हैं, जिसमें उसने सरकारी जमीन पर अतिक्रमण कर बनाई बस्तियों के भी उजाड़े जाने के मामले में सरकारों को सख्त निर्देश दिया था कि बिना वैकल्पिक इंतजाम किए उन्हें वहां से विस्थापित नहीं किया जा सकता.
1985 का ऐतिहासिक ‘ओल्गा टेलिस केस’ भी तो इस मामले में एक नज़ीर बना हुआ है, जिसने संविधान की आत्मा कहे गए अनुच्छेद 21 की व्याख्या को व्यापक किया था, जिसमें उसने फुटपाथ पर रहने वाले लोगों को अन्य अतिक्रमणकारियों से अलग करते हुए कहा था कि ‘वह तमाम मजबूरियों के चलते ही वहां रहते हैं’.
सुप्रीम कोर्ट की पांच सदस्यीय पीठ, जिसकी अगुआई तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश (सीजेआई) वीवी चंद्रचूड कर रहे थे, ने उन्हें वहां से जबरन विस्थापित किए जाने का विरोध किया था .
जाहिर-सी बात है आला अदालत को इस बात ने भी प्रभावित किया होगा कि रेलवे लाइन के किनारे यहां बसे हजारों लोग – जिनका बहुलांश अल्पसंख्यक समुदाय से था – कई दशकों से वहां रह रहे हैं और उनके पास राशन कार्ड, पहचान-पत्र आदि प्रमाण भी उपलब्ध हैं और संविधान की धारा 14 के तहत यह उनके बुनियादी अधिकारों का हनन होगा कि बिना वैकल्पिक इंतजाम में उन्हें वहां से विस्थापित किया जाए.
इतना ही नहीं प्रस्तुत जमीन जिसे रेलवे अपनी जमीन कह रही है, उसके मालिकाने हक को लेकर भी विवाद की स्थिति है.
इस संबंध में अदालतों के सामने सैकड़ों याचिकाएं पड़ी हैं, जो बताती हैं कि उपरोक्त जमीन नजूल जमीन है, जो ऐसी गैर-कृषि योग्य जमीन होती है, जो सरकार की मिल्कियत की होती है, जिसे परिवारों को लीज पर दिया जाता है और कभी कभी उसका फ्रीहोल्ड भी करवाया जाता है.
गौरतलब है कि इलाके के कांग्रेस विधायक सुमित हृदयेश ने अपने साक्षात्कार में इसी बात की ताईद की थी कि किस तरह हल्द्वानी की 70 फीसदी जमीन नजूल भूमि है और सरकार इस मामले में गरीबों का पक्ष लेने में असफल रही है.
आंदोलन के बाद बनभूलपुरा की तस्वीर यही बनी थी कि हाशिये पर पड़े ये लोग भी समान नागरिक हैं, इसका अधिकार प्रकट करने के लिए तत्पर हैं, संविधान की धारा 14 के तहत समानता के हक को अभिव्यक्त कर रहे हैं और उनके खिलाफ समूची राज्य मशीनरी खड़ी है, जो उनकी इन जायज आकांक्षाओं के प्रति संवेदनशील नहीं है.
सर्वोच्च न्यायालय द्वारा जब यहां के निवासियों के हक में फैसला दिया गया तो इस छोटी सी जीत ने देश के अंदर भी विस्थापन के खिलाफ उठ रही आवाजों को नई मजबूती मिली थी.
वैसे किसी ने भी उस वक्त़ यह सपने में नहीं सोचा होगा कि यह बहुत छोटा दौर साबित होगा. बीते 8 फरवरी की शाम के 3-4 बजे के वक्त वहां चली ध्वस्तीकरण की कार्रवाई ने समूचा आख्यान बदल दिया है.
समाचारों के मुताबिक, इलाके में कथित तौर पर अवैध ढंग से बने मदरसा और मस्जिद के ध्वस्तीकरण के लिए भारी पुलिस बल के साथ वहां पहुंचे प्रशासन के महकमे की कार्रवााई के दौरान जो हिंसा हुई, आधिकारिक तौर पर कम से कम 6 लोगों की मृत्यु हुई. तमाम लोग घायल हुए, जिनमें पुलिसकर्मी भी शामिल थे.
अखबारी रिपोर्टों को मुताबिक तमाम ‘दंगाइयों’ को पकड़ा जा चुका है और इस घटना के ‘मास्टरमाइंड’ की भी पहचान कर ली गई है और उससे लगभग 2.5 करोड़ रुपये का जुर्माना देने को कहा गया है.
साफ है एक वक्त शांतिपूर्ण आंदोलन का प्रतीक यह इलाके की छवि में यह रैडिकल बदलाव है. वैसे यह भी भूलना नहीं चाहिए कि अब जैसे-जैसे स्थितियां सामान्य हो रही हैं, हल्द्वानी के इलाकों से कर्फ्यू को भी हटाया गया है, तब जो चित्र उभर रहा है वह निश्चित ही संश्लिष्ट है. और जो सवाल उठ रहे हैं वह भी काबिले-गौर हैं.
‘द वायर’ की रिपार्ट के मुताबिक, अभी भी कुछ इलाके में कर्फ्यू जैसी स्थिति है, चूंकि लोगो के घरों के इर्द-गिर्द बैरिकेड्स खड़े किए गए हैं, लोग सुरक्षित इलाकों में पलायन कर रहे है, बुनियादी चीजों का अभाव भी लोगों को झेलना पड़ रहा है.
सबसे अहम बात जो कही जा रही है कि इस पूरे मामले की किसी रिटायर्ड न्यायाधीश द्वारा – खासकर सुप्रीम कोर्ट से ही सेवानिवृत्त न्यायीधीश द्वारा जांच हो ताकि सच्चाई बिल्कुल पारदर्शी ढंग से उपस्थित हो.
यूं तो राज्य सरकार द्वारा इस मामले की मैजिस्ट्रेट जांच के आदेश दिए गए हैं, लेकिन इस बात को मद्देनज़र रखते हुए यह वही अधिकारी हैं, जिनके मातहत अधिकारियों ने इस ध्वस्तीकरण की कार्रवाई को अमलीजामा पहनाया गया तो फिर जांच की वस्तुनिष्ठता किस हद तक सर्वमान्य होगी, यह बात भी उठ रही है. सच्चाई की तह तक कितना पहुंचा जा सकेगा, यह कहना मुश्किल है!
इस ध्वस्तीकरण की कार्रवाई से जिस तरह के सवाल उठ रहे हैं, उनका जवाब न्यायिक जांच में ही मिलेगा. दरअसल जो चित्र उभर रहा है वह ध्वस्तीकरण के इस ऑपरेशन में उजागर हुई प्रशासन की कार्यप्रणाली को प्रश्नांकित कर रहा है:
〉〉〉〉 मीडिया के एक हिस्से में यह बात भी कही जा रही है कि ‘जिला प्रशासन के पास ध्वस्तीकरण के लिए आवश्यक अदालती आदेश का भी अभाव था’.
〉〉〉〉 ऐसी कार्रवाइयों को अंजाम देने के पहले प्रशासन अपने गुप्तचर विभाग से ऐसे कदम के संभावित अंजाम को जानने के लिए इनपुट्स भी लेती है, जिनकी प्रस्तुत मामले में अवहेलना किए जाने की भी खबरें कई स्थानों पर प्रकाशित हुई हैं.
〉〉〉〉 इस पर भी सवाल उठे हैं कि आखिर इन दो ‘अवैध ढांचों को’ ध्वस्त करने की ऐसी क्या जल्दबाजी थी, जबकि मामला अदालत में विचाराधीन होने के चलते दोनों जगहें पुलिस के कब्जे में ही थीं, जिस पर प्रशासन ने अपने ताले लगाए थे और उत्तराखंड हाईकोर्ट 14 फरवरी को ही इस मामले की सुनवाई करने वाली थी.
जिला प्रशासन द्वारा यह दलील दी जा रही है कि दोनों ढांचे नजूल जमीन पर बसे थे और प्रशासन द्वारा अंजाम दिए जा रहे अतिक्रमण विरोधी अभियान के तहत इस ध्वस्तीकरण को संपन्न किया गया.
इस मामले में सरकार के दावों को पत्रकारों, सामाजिक कार्यकर्ताओं, नागरिक समाज के प्रबुद्ध जनों तथा राजनीतिक संगठनों की तरफ से राज्यपाल को दिए गए ज्ञापन में स्पष्ट किया गया कि अकेले बनभूलपुरा में नहीं खुद हल्द्वानी में आबादी का बड़ा हिस्सा – जिसमें सभी धर्मों के लोग शामिल हैं – नजूल जमीन पर बसा है और समूचे उत्तराखंड में इसी किस्म की स्थिति है.
गौरतलब है कि इस स्थिति को देखते हुए खुद राज्य सरकार की तरफ से केंद्र के पास यह प्रस्ताव गया है कि नजूल जमीन पर बसे लोगों को जमीन का मालिकाना हक दिया जाए.
राज्यपाल से मिलने गए नागरिक समाज के इन लोगों ने यह सवाल भी उठाया कि अगर ऐसी स्थिति है तो फिर बनभूलपुरा के लोगों को खास तौर पर निशाना क्यों बनाया गया, जिनके बारे में खुद आला अदालत ने कहा था कि ‘बल प्रयोग से लोगों को विस्थापित नहीं किया जा सकता.’
अगर संतुलित निगाह से इस मामले को देखने की कोशिश की जाए तो पता चलता है कि न केवल जिला प्रशासन बल्कि खुद राज्य प्रशासन को ही इस मामले में अपनी तरफ से स्पष्टीकरण की दरकार रहेगी.
वजह यह है कि महज एक साल पहले शांतिपूर्ण आंदोलन के इस इलाके में, जिसके बारे में आला अदालत ने खास निर्देश दिए हैं, वहां ऐसी कार्रवााई बिना राज्य सरकार को विश्वास में लिए बगैर नहीं की गई होगी.
राज्य सरकार को यह भी पूछा जाएगा कि क्या उसे इस बात का अंदेशा नहीं था कि बलप्रयोग की कोई भी कोशिश विपरीत प्रतिक्रिया को जन्म देगी, जबकि इन स्थानीय निवासियों को सर्वोच्च न्यायालय की तरफ से यह भरोसा मिला है कि बिना वैकल्पिक इंतजाम के उन्हें विस्थापित नहीं किया जाएगा.
अगर जिले के खुफिया विभाग ने इस मामले में दिए गए इनपुट्स की कथित तौर पर जिला प्रशासन ने उपेक्षा की, तो क्या उसका यह फर्ज नहीं बनता था कि वह इस बारे में जिला महकमे को निर्देश देता.
राज्यपाल से मिलने गए प्रतिनिधिमंडल में शामिल नागरिक समाज के लोगों और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने यह बात भी स्पष्ट की कि किसी भी इलाके में अगर ध्वस्तीकरण होता है तो दिनदहाड़े सुबह के वक्त इस कार्रवाई के वक्त इसे अंजाम दिया जाता है, जबकि बनभूलपुरा इलाके में इस कार्रवाई का आगाज शाम 3-4 बजे किया गया था.
एक और महत्वपूर्ण बात जिसके बारे में उत्तराखंड सरकार को सचेत रहना चाहिए था, वह थी समान नागरिक संहिता कानून के विधानसभा में लगी मुहर का मामला और जिसके चलते अल्पसंख्यक समुदाय के अंदर फैली अधिक असुरक्षा की भावना. क्या राज्य सरकार इस मामले में संयम का परिचय देने के लिए नहीं कह सकती थी?
चाहे न चाहे लेकिन बनभूलपुरा में ‘अवैध ढांचे’ के ध्वस्तीकरण ने न केवल जिला प्रशासन की कार्यप्रणाली की कथित खामियों को उजागर किया है, बल्कि खुद राज्य सरकार को भी इस मामले में अपना पक्ष स्पष्ट करना है कि जहां तक अल्पसंख्यक अधिकारों का सवाल है, उनके अनुपालन में वह आज तक कितनी चुस्त रही है.
विडंबना ही है कि जो शक्ल उभर रही है वह कतई उत्साहवर्धक नहीं है.
अभी चंद माह पहले समाचार वेबसाइट ‘स्क्रोल डॉट इन’ ने इस मामले में एक लंबा लेख प्रकाशित किया था कि किस तरह ‘राज्य द्वारा समर्थित हिंदुत्व के शब्दाडंबर’ ने एक तरह से उत्तराखंड में अल्पसंख्यकों के लिए बेहद विपरीत स्थिति पैदा की है, जिसे रिटायर्ड आईएएस अफसर हर्ष मंदर ने लिखा था.
यह बात साफ कही गई थी कि यह पर्वतीय राज्य कितने ‘अभूतपूर्व उथल-पुथल’ से गुजर रहा है, जहां एक तरह से ‘राज्य से मुसलमानों के निष्कासन का संघर्ष गति पकड़ रहा है, जिसे अपरोक्ष रूप से राज्य का संरक्षण प्राप्त है.’
ऐसा कोई भी व्यक्ति – जो भाजपा शासन में चीजें जिस तरह चल रही है, उससे परिचित है – बता सकता है कि बनभूलपुरा की घटनाएं अपवाद नहीं हैं. विगत पांच वर्षो से भाजपा शासित राज्यों में यही पैटर्न बन गया है.
इस मामले में मध्य प्रदेश हाईकोर्ट का हालिया फैसला काफी कुछ कहता है, जिसमें उसकी तरफ से गैरकानूनी ध्वस्तीकरण की शिकार पीड़िता को मुआवजा देने का आदेश देते हुए कहा गया कि ‘किस तरह इन दिनों यह फैशन चल पड़ा है कि स्थानीय प्रशासन और स्थानीय निकाय किसी भी मकान को ध्वस्त करने की योजना बनाते हैं और न प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत का पालन करते हैं और न इसके बारे में अखबार में ऐलान करते हैं.’
उज्जैन की याचिकाकर्ता राधा लांगरी ने आरोप लगाया था कि उनके पति को फर्जी आरोपों में गिरफ्तार किया गया और उनका मकान ध्वस्त किया गया.
उनके अनुसार, ‘उन्होंने महज एक दिन की नोटिस दी और हमारे घर को गिरा दिया. हम लोगों ने उन्हें प्रॉपर्टी के दस्तावेज भी दिखाए, लेकिन उन्होंने एक बात भी नहीं सुनी.’
राधिका ने साफ कहा कि एक व्यक्ति अगर अपराध करता है, इसका मतलब समूचा परिवार अपराधी नहीं है, फिर उस परिवार को क्यों दंडित किया जाता है. किसी परिवार का मकान ध्वस्त करके आप सामूहिक सजा सुना रहे हैं.
अभी बनभूलपुरा के ध्वस्तीकरण के प्रसंग के पहले मुंबई का मीरा भायंदर इलाका सुर्खियों में था, जहां 22 जनवरी की शाम को लोगों में हुई झड़प का बहाना बना मुसलमानों के मिल्कियत वाली दुकानों, प्रतिष्ठानों को ध्वस्त किया गया था.
जिस उज्जैन के प्रसंग में हाईकोर्ट ने फैसला दिया, उसी ने उन्हीं दिनों सात माह से जेल में बंद एक मुस्लिम नौजवान को जमानत पर रिहा किया, जिसके ऊपर फर्जी आरोप लगाए गए थे कि उसने धार्मिक जुलूस पर थूका था, जब उस पर आरोप लगाने वाले अपने आरोप से मुकर गए.
गौरतलब था कि महज इन फर्जी आरोपों के बाद ही उसी शाम को पुलिस प्रशासन ने परिवार के तीन मंजिला मकान को ‘अवैध निर्माण’ बताकर ध्वस्त किया, जो मकान 50 साल से बना था. मकान ध्वस्त करते वक्त बाकायदा पुलिस की तरफ से बाजा बजाया जा रहा था.
हल्द्वानी में जिस दिन ध्वस्तीकरण को अंजाम दिया गया, उसी दिन अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार संस्था एमनेस्टी इंटरनेशनल ने भारत में मकानों के ध्वस्तीकरण पर दो रिपोर्टों का प्रकाशन किया था, जिसका फोकस ‘भाजपा शासित राज्यों में बदले की भावना से अंजाम दिए जा रहे ध्वस्तीकरणों पर’ था.
रिपोर्ट बुलडोजरों के अंधाधुध प्रयोग पर थी, जिसमें साफ-साफ मांग की गई थी कि वह ‘मुस्लिम संपत्तियों की निशानदेही कर उनके ध्वस्तीकरण को तुरंत रोके’.
‘अगर तुम बोलोगे तो तुम्हारा मकान ध्वस्त किया जाएगा: भारत में बुलडोजर अन्याय’ (If you speak up, your house will be demolished) शीर्षक से प्रस्तुत पहली रिपोर्ट में भाजपा शासित असम, दिल्ली, गुजरात, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश आदि राज्यों में अप्रैल और जून 2022 के दरमियान सांप्रदायिक घटनाओं और विरोध प्रदर्शनों के बाद हुई ध्वस्तीकरणों की कई घटनाओं की पड़ताल की गई थी.
रिपोर्ट में इस बात के विवरण पेश किए गए हैं कि ‘निशानदेही करके किए गए इन ध्वस्तीकरणों को किस तरह वरिष्ठ राजनेताओं और सरकारी अधिकारियों के उकसावे पर अंजाम दिया गया, जिसका प्रभाव 617 लोगों पर पड़ा.
रिपोर्ट में इस बात का भी उल्लेख है कि ‘लगभग दो सालों के बाद भी मुस्लिम परिवार और प्रतिष्ठान अपने मकानों के ध्वस्त किए जाने पर, प्रार्थनास्थलों के उजाड़े जाने पर और व्यवसायों के तबाह किए जाने पर मुआवजे का इंतजार कर रहे हैं. विभेदकारी कानूनों और आचरणों का विरोध करने पर मुस्लिम संपत्तियों को बदले की भावना से ध्वस्त करना यह भारत सरकार की एक अघोषित नीति है. अंतरराष्ट्रीय कानूनों के तहत इसे जबरन बेदखली और सामूहिक तथा मनमानी सजा कहा जाता और ऐसे मामलों की जांच तत्काल जरूरी है.’
तय बात है खास समुदायों के मकानों, दुकानों या प्रार्थना स्थल के इस गैरकानूनी और अमानवीय किस्म के ध्वस्तीकरणों पर रोक लगनी चाहिए.
क्या आला अदालत से इस मामले में कोई उम्मीद की जा सकती है.
फिलवक्त इस सवाल पर आधिकारिक तौर पर कुछ नहीं कहा जा सकता, लेकिन इतना तो अवश्य कहा जा सकता है कि अगर एक राज्य का उच्च न्यायालय साफ कहता है कि ‘ध्वस्तीकरण संविधानप्रदत्त प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत का उल्लंघन करते हैं और इन दिनों यह फैशन बन गया है’ तो उच्चतम न्यायालय – जो विगत पांच साल से ऐसे मामलों को भाजपा शासित राज्यों में घटित होते देख रहा है तो वह क्यों इस मामले केंद्र और राज्य सरकारों को साफ साफ दिशा निर्देश नहीं देता.
अगर एमनेस्टी इंटरनेशनल जैसा मानवाधिकार संगठन अपनी रिपोर्ट पेश करता है तो उच्चतम अदालत को भी इस मामले में एक सार्थक पहल करनी ही चाहिए ताकि फर्जी आरोप लगा कर, बिना अदालती कार्रवाई की औपचारिकता को पूरा किए ही जनता के एक तबके को जिंदगी के अधिकार से ही हमेशा के लिए मरहूम किया जाए.
यह साल इस देश के गणतंत्रा बनने का 75वां साल है. 26 जनवरी 1950 को लागू हुए संविधान ने सभी के लिए न्याय, स्वतंत्रता, समानता और बंधुता, का वायदा किया था.
क्या सर्वाेच्च न्यायालय इस बात को सुनिश्चित नहीं कर सकता कि राज्यसत्ता खुद जनता के इन अधिकारों का उल्लंघन करती न दिखे. बिना किसी प्रमाण के लोगों के आवासों, प्रतिष्ठानों, प्रार्थनास्थलों का विध्वंस करना चाहे तो उस पर लगाम लगाने का काम उसका है.
(लेखक वामपंथी एक्टिविस्ट और अनुवादक हैं.)