उच्च शिक्षण संस्थाओं के दलित छात्र आत्महत्या क्यों कर रहे हैं?
लोकसभा में शिक्षा मंत्रालय ने बताया कि देश के 45 केन्द्रीय विष्वविद्यालयों में से सिर्फ 1 में अनुसूचित जाति का कुलपति है। यह भी बताया गया कि कुल 8668 उम्मीदवारों ने सहायक प्राध्यापक के पद के लिए आवेदन किया जिनमें से 5247 सामान्य वर्ग के थे वहीं 1045 अनुसूचित जाति, 490 अनुसूचित जनजाति और 1567 अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के थे। भेदभाव की यह स्थिति सिर्फ उच्च शिक्षण संस्थाओं तक सीमित नहीं है बल्कि लगभग सभी शिक्षण संस्थाओं में विद्यमान है।
हमने दलितों, आदिवासियों को सरकारी नौकरियों, शिक्षण संस्थाओं, संसद, विधानसभाओं में भले ही आरक्षण दे दिया हो परंतु समाज में अभी भी उनके साथ बड़े पैमाने पर भेदभाव जारी है। शिक्षण संस्थाओं समेत अनेक क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर यह भेदभाव जारी है। यह भेदभाव इतना ज्यादा है कि उससे तंग आकर उच्च षिक्षण संस्थाओं में पढ़ने वाले कई दलित छात्र आत्महत्या कर लेते हैं।
सन् 2021 के दिसंबर माह में केन्द्रीय शिक्षा मंत्री धर्मेन्द्र प्रधान ने संसद में बताया कि पिछले 7 वर्षों में 122 छात्रों ने देश के विभिन्न उच्च शिक्षण संस्थाओं में आत्महत्या की। इन आत्महत्या करने वालों में दलित, आदिवासी, पिछड़े वर्ग और मुस्लिम छात्र शामिल थे। इनमें ज्यादा संख्या दलितों की थी। आत्महत्या करके अपने जीवन का अंत करने वाले छात्र आईआईटी, आईआईएम और मेडिकल कालेजों के थे। इन 122 छात्रों में से 3 आदिवासी, 24 दलित और 3 अल्पसंख्यक थे। आत्महत्या करने वाले 34 छात्र आईआईटी या आईआईएम में अध्ययनरत थे। तीस छात्र विभिन्न राष्ट्रीय तकनीकी संस्थाओं के थे।
सन् 2016 के जनवरी माह की 17 तारीख को हैदराबाद केन्द्रीय विश्वविद्यालय के पीएचडी अध्येता रोहित वेम्युला ने आत्महत्या की थी। उन्होंने प्रशासन के विरूद्ध अनेक शिकायतें की थीं। वर्ष 2019 में टोपीवाला नेशनल मेडिकल कालेज, मुंबई की छात्रा पायल तडवी ने आत्महत्या कर ली। तडवी ने कालेज में उच्च जाति के छात्रों द्वारा सतत भेदभाव और सताए जाने की शिकायत की थी। वेम्युला और तडवी दोनों दलित थे। दोनों की आत्महत्या के बाद उठे तूफान के मद्देनजर अपेक्षा थी कि उच्च शिक्षण संस्थाओं में दलित विद्यार्थियों के प्रति व्यवहार में कुछ अंतर आएगा। परंतु उसके बाद से लेकर आज तक जो आंकड़े सामने आए हैं उससे लगता है कि स्थिति जस की तस है बल्कि स्थिति और बदतर हो गई है। संसदीय समिति की रिपोर्ट के अनुसार एम्स दिल्ली में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के छात्र लगातार परीक्षा में फेल हो रहे हैं। इसका कारण उनके साथ होने वाला भेदभाव है।
यह बात एससी-एसटी कमेटी के अध्यक्ष भाजपा सांसद प्रेम जी भाई सोलंकी ने भी स्वीकार की है। उन्होंने अपनी रिपोर्ट में कहा कि यहां तक कि विभिन्न पोजीशनों के लिए आवेदन करने में भी उनके साथ भेदभाव किया जाता है।
लोकसभा में शिक्षा मंत्रालय ने बताया कि देश के 45 केन्द्रीय विष्वविद्यालयों में से सिर्फ 1 में अनुसूचित जाति का कुलपति है। यह भी बताया गया कि कुल 8668 उम्मीदवारों ने सहायक प्राध्यापक के पद के लिए आवेदन किया जिनमें से 5247 सामान्य वर्ग के थे वहीं 1045 अनुसूचित जाति, 490 अनुसूचित जनजाति और 1567 अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के थे। भेदभाव की यह स्थिति सिर्फ उच्च शिक्षण संस्थाओं तक सीमित नहीं है बल्कि लगभग सभी शिक्षण संस्थाओं में विद्यमान है।
वर्ष 1942 में कनाडा में भाषण देते हुए डॉ. बी. आर. आम्बेडकर ने भारत में दलितों की समस्या की चर्चा करते हुए दो मुख्य बातों का उल्लेख किया था। उन्होंने पहली बात यह कही थी कि जाति व्यवस्था साम्राज्यवाद से ज्यादा खतरनाक है और भारत में जातिप्रथा समाप्त होने के बाद ही शांति और व्यवस्था कायम हो पाएगी। दूसरी बात यह कही थी कि भारत में यदि किसी वर्ग को स्वतंत्रता चाहिए तो वे दलित हैं।
आज भी यही स्थिति है। दलितों की दुर्दशा एक बार फिर उस समय उजागर हुई जब गत 12 फरवरी को 18 वर्षीय दलित छात्र दर्शन सोलंकी ने आत्महत्या कर ली। वह आईआईटी बंबई का छात्र था। उसने छात्रावास की सातवीं मंजिल से कूदकर आत्महत्या की। इस घटना ने पूरे देश में दलितों की स्थिति के बारे में सवाल खड़े कर दिए हैं।
दर्शन आईआईटी बंबई में बीटेक प्रथम वर्ष (केमिकल इंजीनियरिंग) का छात्र था। उसने तीन माह पहले ही इस संस्था में प्रवेश लिया था। आत्महत्या करने के कुछ दिन पहले वह घर गया। आत्महत्या करने के एक माह पहले उसने अपने परिवार को बताया था कि उसे कालेज में प्रतिकूल वातावरण का सामना करना पड़ रहा है विशेषकर उसके सहपाठियों को यह पता लगने के बाद कि वह अनुसूचित जाति का है। उसे यह कहकर चिढ़ाया जाता था कि वह निशुल्क शिक्षा पा रहा है। उसकी मां ने बताया कि उसे अनेक दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा था और उसे तरह-तरह से सताया जाता था।
-एल. एस. हरदेनिया