विधायकों के लिये नये निवास: पर किस कीमत पर
इस समय मध्यप्रदेश में मंत्रियों तथा विधायकों के निवास को लेकर विवाद चल रहा है. शासन इनके लिये नये बंगलों के निर्माण की योजना बना रहा है. इन बंगलों के निर्माण के लिये जितनी भूमि की आवश्यकता है उसे प्राप्त करने के लिये हज़ारों पेड़ काटे जायेंगे. इतनी बड़ी संख्या में पेड़ों के काटे जाने से भोपाल की जलवायु भी प्रभावित होगी. 1956 में जब भोपाल को मध्यप्रदेश की राजधानी बनाया गया था. उस समय भोपाल एक अत्यधिक ठंडा स्थान था. उस समय यदि हम लोग खुले में सोते थे तो हमें रजाईयां ओढ़ना पड़ता था. परंतु धीरे-धीरे स्थिति बदलती गई. भारी संख्या में पेड़ काटे जाने लगे, खेती के जमीन पर निर्माण होने लगा. भोपाल कांक्रीट का जंगल होता गया. शहर में हज़ारों की संख्या में एयरकंडीशनर लगाये जाने लगे.
प्रश्न यह है कि क्या विधायकों के लिए भोपाल में अतिरिक्त निवासों की आवश्यकता है? और यदि है भी तो उसके लिए जमीन प्राप्त करने हेतु क्या हजारों पेड़ काटने की आवश्यकता है?
जब भोपाल राजधानी बना था, उस समय भोपाल के विधानसभा की सदस्य संख्या 320 थी. छत्तीसगढ़ बननेे के बाद 90 सदस्य छत्तीसगढ़ में शामिल कर लिये गये. इस तरह 90 निवास खाली हो गये. फिर प्रश्न यह है कि क्या राजधानी में विधायकों के लिए स्थायी निवास उपलब्ध करना आवश्यक है? इस समय स्थिति यह है कि विधानसभा का सत्र बहुत ही कम समय के लिए आयोजित किया जाता है. कभी-कभी 3 और 4 दिन के अंदर ही विधानसभा का सत्रावास हो जाता है. इस तरह विधायकों को वर्ष में 8-10 दिन से ज्यादा भोपाल में रहने की आवश्यकता नहीं होती.
एक समय था जब भोपाल में विधायकों का तीसरा विश्राम गृह सिर्फ विधायकों के मेहमानों को ठहराने के लिए उपयोग किया जाता था. कई राज्यों में तो वर्षों तक विधायकों के निवास, यदि सत्र नहीं होता था तो उनका उपयोग लगभग होटल की तरह किया जाता था. हमें याद है कि हम लोग जब बंबई जाते थे तो कई बार हमें विधायकों के खाली निवास पर ठहराया जाता था. उसका किराया भी लिया जाता था. ज्ञात नहीं है परंतु हो सकता है कि इस तरह की व्यवस्था देश के अन्य राज्यों में भी होती हो.
दुनिया का सबसे पुराना प्रजातंत्र ब्रिटेन का है. वहां दो सदन हैं, एक हॉउस ऑफ लार्ड और दूसरा हाउस ऑफ कामन्स. इनके सदस्यों को लंदन में ठहरने के लिए कोई स्थायी व्यवस्था नहीं है. जब सत्र होता है तो इन दोनों सदनों के सदस्य या तो होटल में ठहरते हैं या किसी के घर में किराया देकर ठहरते हैं. व्यवस्था ऐसी भी है कि यदि किसी सदस्य को मकान मालिक को किराया देना पड़ता है तो उसे उतने ही दिन का किराया देना पड़ता है जितने दिन इन सदनों की बैठक होती है. उसका प्रमाण पत्र सदस्यों को अपने सदन के सचिवालय से प्राप्त करना पड़ता है. जितने दिन का प्रमाण पत्र मिलता है उतने ही दिन का सदस्य को किराये की पात्रता होती है.
इस समय जो विश्राम गृह भोपाल में हैं उनकी क्या स्थिति है यह ज्ञात नहीं है. कई पारिवारिक विश्राम गृह भी बन चुके हैं जिनमें रसोई घर, स्नान घर की भी व्यवस्था है. यदि वर्तमान में इन विश्राम गृहों की स्थिति कुछ कमजोर है तो उन्हीं को तोड़कर उन्हीं स्थानों पर नये मकान बनाये जा सकते हैं. परंतु बंगले और मकान बनाने के लिए नई जमीन की उपलब्धता के खातिर हजारों की संख्या में पड़ों का काटना पूरी तरह अनावश्यक है. इसके विरोध में भोपाल में आवाजें उठने लगी हैं और यदि सरकार का निर्णय नहीं बदला तो पेड़ों की कटाई रोकने के लिए एक बहुत बड़ा आंदोलन भी हो सकता है.
जब भारत आज़ाद हुआ था तो यह प्रश्न चर्चा में आया था कि मंत्रियों और अन्य लोगों को दिल्ली में रहने के लिए क्या इंतज़ाम किए जायें. इस संबंध में महात्मा गांधी की राय स्पष्ट थी. उन्होंने परामर्श दिया था कि ‘‘सरकार में काम करने वाले लोगों के लिए छोटे मकान ही यथेष्ट हैं.’’ उन्होंने इस संबंध में तत्कालीन गवर्नर जनरल और प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर यह सलाह दी थी कि ‘‘वे छोटे मकानों से ही काम चलायें. जिस देश में लाखों, करोड़ों लोग एक वक्त का भोजन कर पाते हैं उस देश में बड़े-बड़े महलांे को बनवाकर उन पर फिजूल खर्ची न की जाये.’’
गांधीजी ने पंडित नेहरू को अपने एक पत्र में लिखा था: ‘‘हम अंग्रेजों की फिजूलखर्ची को अपना रहे हैं, जिसे हमारा देश बरदाश्त नहीं कर सकता.’’ कुछ दिन बाद उन्होंने फिर लिखा: ‘‘मुझे लगता है कि वाइसरॉय को किसी सादे मकान में जाने देना चाहिये और वर्तमान राजप्रासाद का उपयोग अधिक उपयोगी कामों के लिए करना चाहिये.’’ पंडित नेहरू इससे सहमत थे. माउण्टबेटन इसके लिए तैयार थे-उनमें इसका उत्साह भी था. गांधीजी ने माउण्टबेटन को लिखाः ‘‘क्या मैं बता सकता हूं कि राष्ट्र के अधभूखे करोड़ों ग्रामीणों के चुने हुए गवर्नर-जनरल के नाते आपने किसी सादे मकान में जाने की जो इच्छा प्रकट की है, उसका मेरे मन में कितना आदर है? आशा है कि आपकी यह इच्छा पूरी की जा सकेगी.’’ परन्तु पंडित नेहरू ने उसी दिन लिखे गये अपने पत्र में गांधीजी को समझाया कि ‘‘हम काम में इतने व्यस्त हैं कि उपयुक्त स्थान ढूंढना और राजप्रासाद को छोड़कर दूसरे स्थान में जाने की व्यवस्था करना कठिन है.’’ सारा कारण यही नहीं हो सकता था, क्योंकि भारतीय गवर्नर-जनरल के पदारूढ़ होनेे के बाद भी न तो उनके निवास में और न उसके ठाटबाट में कोई परिवर्तन किया गया. हमें यह भी बताया गया कि विदेशों के महान राजपुरूष राजभवन में जो स्तर रखा गया है उसे भी ‘अपर्याप्त’ समझते हैं.
गांधीजी को इससे निराशा हुई, परंतु उन्होंने अपनी निराशा से भी ‘भलाई’ खींच निकाली. उत्तेजना के उन दिनांे में, जब दिल्ली कब्रस्तान बन गया था, गवर्नर-जनरल के साथ हुई एक मुलाकात के दौरान गांधीजी को बताया गया कि किस तरह राजभवन दंगा-फसाद और रास्तों के शोर-गुल से दूर संकट-समिति की बैठकों और चर्चाओं के लिए एक शान्त एकान्त स्थान बन गया है. माउण्टबेटन को दी हुई अपनी पहले वाली सलाह की याद दिलाते हुए गांधीजी ने उनसे कहा: ‘‘इसकी परवाह नहीं कि आप छोटे मकान में क्यों नहीं गये. जब मैं संकट-समिति को इस भवन की अखण्ड शान्ति में काम करते देखता हूँ तब अपने मन में कहता हूँ: ‘’शायद ईश्वर हम सबसे अधिक बुद्धिमान है. कारण, यह ठीक ही है कि संकट-समिति की बैठक ऐसे स्थान पर हो जहां उचित वातावरण में बुद्धिमत्तापूर्ण निर्णय किये जा सकें.’’
परंतु गांधी जी द्वारा दी गई अनेक सलाहों की जिस तरह उपेक्षा की गई वही इस परामर्श के साथ भी हुआ. अभी हाल में समाचारपत्रों में छपा है कि भोपाल में मंत्रियों के बंगलों के सुधार में ही करोड़ों रूपये खर्च हुए हैं. किस मंत्री के बंगले के सुधार में कितना खर्च हुआ इसका विवरण भी समाचार पत्रों में छपा है.
By एल.एस. हरदेनिया