प्रिय दोस्तों, आज सुप्रीम कोर्ट की उस बेंच के सामने जो सुनवाई चल रही थी, उसमें उमर खालिद, शरजील इमाम, गुलफिशा फातिमा और दिल्ली दंगों से जुड़े अन्य बेकसूर लोगों की ज़मानत याचिकाएँ शामिल थीं। वहाँ जो कुछ हुआ, उसे सुनकर हर इंसान जिसके सीने में थोड़ी-सी भी इंसानियत बाकी है, शर्म से सिर झुका लेगा। यह कोई आम सुनवाई नहीं थी, बल्कि हमारे न्यायिक सिस्टम की उस कड़वी सच्चाई का पर्दाफाश था, जिसे सालों से दबाया जा रहा है।
140 तारीख़ें — और फिर भी ट्रायल शुरू नहीं!
वरिष्ठ वकील कपिल सिब्बल ने अदालत में जो आंकड़े पेश किए, वे किसी थ्रिलर फ़िल्म के क्लाइमेक्स से कम नहीं थे। उन्होंने बताया कि इस केस की सुनवाई के लिए पिछले कई सालों में कुल 140 से ज़्यादा तारीख़ें सिर्फ़ और सिर्फ़ सिस्टम की लापरवाही की भेंट चढ़ गईं।
ज़रा गौर करें:
55 तारीख़ें: जज साहब छुट्टी पर थे।
26 तारीख़ें: कोर्ट में समय नहीं था, बेंच उपलब्ध नहीं।
59 तारीख़ें: स्पेशल पब्लिक प्रॉसीक्यूटर (SPP) अनुपस्थित थे।
कुल मिलाकर 140 से अधिक सुनवाइयाँ बिना किसी ठोस वजह के टलती चली गईं। और हैरानी की बात तो यह है कि दिल्ली पुलिस आज भी कोर्ट में यही कहती है कि “आरोपी ट्रायल टाल रहे हैं”। जबकि ट्रायल तो अब तक शुरू ही नहीं हुआ!

उमर खालिद: 751 FIR में सिर्फ़ एक में नाम, फिर भी पाँच साल से जेल में:
दिल्ली दंगों के नाम पर दर्ज 751 एफआईआर में उमर खालिद का नाम सिर्फ़ एक में है। और उस एक केस में भी अब तक ट्रायल शुरू नहीं हो पाया है। फिर भी वे पाँच साल से जेल में हैं। क्या यही है “मदर ऑफ डेमोक्रेसी” का न्याय? जहाँ किसी का नाम “उमर” हो तो कानून की किताबें भी ठंडी पड़ जाती हैं? तारीख़ पर तारीख़ तो मिलती है, लेकिन इंसाफ़ की झलक तक नहीं!
कपिल सिब्बल का सवाल: क्या UAPA का मतलब ‘Unending Prison Before Trial’?
सिब्बल ने अदालत से सवाल किया — “क्या अब UAPA का अर्थ ‘Unlawful Activities (Prevention) of Bail Act’ बन गया है?” उन्होंने कहा कि इस कानून के तहत न केवल ज़मानत मुश्किल है, बल्कि ट्रायल शुरू होने में भी सालों लग जाते हैं। आरोपी जेल में सड़ता रहता है — बिना दोष सिद्ध हुए, सज़ा भुगतता हुआ। क्या यही है हमारा संवैधानिक अधिकार — “सज़ा से पहले सज़ा”?
दिल्ली पुलिस का दोहरा रवैया:
एक तरफ़ पुलिस कहती है कि आरोपी ट्रायल में देरी कर रहे हैं, दूसरी ओर हर बार जब सुनवाई होती है तो या तो SPP अनुपस्थित होते हैं, या चार्जशीट अधूरी होती है, या कोई तकनीकी अड़चन सामने आ जाती है। सिब्बल ने कहा — यहाँ देरी का दोषी आरोपी नहीं, बल्कि नफरती सिस्टम है जिसके अंदर अन्याय की बू भरी है।
इस अन्याय के सिस्टम को क्या नाम दिया जाए:
यह मामला केवल उमर खालिद, शरजील इमाम या गुलफिशा फातिमा का नहीं है, बल्कि यह हमारे पूरे न्यायिक सिस्टम की बीमारियों का आईना है। देश की जेलों में लाखों under-trial कैदी सालों से बंद हैं क्योंकि:
जजों की भारी कमी है,
कोर्ट रूम पर्याप्त नहीं हैं,
प्रॉसीक्यूटर समय पर नहीं आते,
और चार्जशीट में अनगिनत त्रुटियाँ होती हैं।
जब बात “राष्ट्रीय सुरक्षा” या “UAPA” की आती है, तो ज़मानत नाम की चीज़ मानो अस्तित्व ही खो देती है।
केस का बैकग्राउंड एक बार दोबारा गौर करें:
फरवरी 2020 में नागरिकता संशोधन कानून (CAA) के खिलाफ शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शनों के दौरान उत्तर-पूर्व दिल्ली में हुए दंगों में 53 लोग मारे गए और सैकड़ों घायल हुए। दिल्ली पुलिस ने इसे “पूर्वनियोजित साजिश” करार दिया, जिसमें UAPA के तहत 20 से ज्यादा कार्यकर्ताओं को नामजद किया गया। उमर खालिद (पूर्व JNU छात्र नेता), शरजील इमाम, गुलफिशा फातिमा, मीरान हैदर और शिफा-उर-रहमान जैसे आरोपी दंगों के समय दिल्ली में मौजूद भी नहीं थे, फिर भी उन्हें “रेजीम चेंज” की साजिश रचने का आरोप लगाया गया।
ट्रायल कोर्ट ने मार्च 2022 में जमानत खारिज कर दी, दिल्ली हाईकोर्ट ने सितंबर 2025 में फिर इनकार किया। अब सुप्रीम कोर्ट में अपील लंबित है। पुलिस का दावा है कि ये लोग CAA विरोध को “कैमोफ्लाज” बनाकर दंगे भड़काने के लिए जिम्मेदार थे, लेकिन बचाव पक्ष कहता है कि कोई ठोस सबूत (जैसे वीडियो या प्रत्यक्ष गवाही) नहीं है—सिर्फ भाषणों और व्हाट्सएप चैट्स का हवाला।
सुनवाई का हाल: 3 नवंबर 2025 की कार्यवाही
जस्टिस अरविंद कुमार और एनवी अंजरिया की बेंच ने 31 अक्टूबर को सुनवाई शुरू की, जो 3 नवंबर को जारी रही। वकील कपिल सिब्बल (उमर खालिद के लिए), एएम सिंहवी (गुलफिशा फातिमा के लिए) और सिद्धार्थ दवे (शरजील इमाम के लिए) ने मुख्य दलीलें रखीं:
लंबी हिरासत का तर्क: पांच साल से ज्यादा जेल में रहना “ट्रायल के बिना सजा” है। सुप्रीम कोर्ट के पुराने फैसलों (जैसे 2023 के एक केस में) में कहा गया कि अपराध की गंभीरता लंबी हिरासत के खिलाफ जमानत का आधार नहीं बन सकती।
ट्रायल में देरी: सिब्बल ने बताया कि 751 FIRs में से 116 पर ट्रायल पूरा हुआ, जिनमें 97 में बरी, और 17 में सबूतों की जालसाजी पाई गई। फिर भी, साजिश वालेस के में ट्रायल शुरू नहीं। 2025 में चार तारीखें वकीलों की हड़ताल से खाली रहीं, 55 तारीखें जज की छुट्टी/ट्रेनिंग से, और 59 तारीखें स्पेशल पब्लिक प्रॉसीक्यूटर की अनुपस्थिति से। पुलिस आरोपी को दोष देती है, लेकिन खुद जिम्मेदार है।
सबूतों की कमी: खालिद दंगों के समय दिल्ली से बाहर थे। फातिमा ने कहा कि उनकी जमानत याचिका 90 बार लिस्ट हुई, लेकिन प्रगति शून्य। इमाम के वकील ने कहा कि भाषण गांधीवादी सिद्धांतों पर था, हिंसा भड़काने वाला नहीं।
पैरिटी का मुद्दा: सह-आरोपी जैसे देवांगना कलीता, नताशा नरवाल और आसिफ इकबाल तन्हा को सुप्रीम कोर्ट ने जमानत दी, फिर इनको क्यों नहीं?
दिल्ली पुलिस (एएसजी एसवी राजू के जरिए) ने विरोध किया: “ये लोग ‘एक दिन की आजादी’ के लायक भी नहीं।” दंगे सहज नहीं, पूर्वनियोजित थे। सुनवाई 6 नवंबर को दोपहर 2 बजे जारी रहेगी।
X (पूर्व ट्विटर) पर बहस तेज:
कुछ यूजर्स (#HindutvaSupremeCourt) इसे “धार्मिक पूर्वाग्रह” बताते हैं, जहां मुस्लिम नाम वाले आरोपी लंबे समय तक जेल में सड़ते हैं। दूसरी तरफ, पुलिस समर्थक कहते हैं कि सबूतों की कमी का दावा “पीड़ित कार्ड” है। पूर्व CJI डीवाई चंद्रचूड़ के हालिया बयान पर भी सवाल उठे, जहां उन्होंने वकीलों की देरी को जिम्मेदार ठहराया, लेकिन फैक्ट-चेक से साफ है कि ज्यादातर देरी सिस्टम की है।
UAPA के तहत न्याय: संतुलन कहां?
UAPA आतंकवाद रोकने के लिए है, लेकिन इसका इस्तेमाल राजनीतिक विरोध को दबाने के लिए हो रहा। सुप्रीम कोर्ट ने 2021 में कहा था कि UAPA में जमानत के लिए “प्रथम दृष्टया केस” साबित होना चाहिए, लेकिन यहां सबूत कमजोर हैं—ज्यादातर देरी वाले गवाह बयान।
यह केस पूछता है: क्या अभिव्यक्ति की आजादी (अनुच्छेद 19) को UAPA से कुचला जा सकता है? और लंबी हिरासत “न्याय” है या “सजा”?
न्याय कब तक?
6 नवंबर की सुनवाई निर्णायक हो सकती है। अगर जमानत मिली, तो UAPA के दुरुपयोग पर बहस तेज होगी; न मिली, तो सिस्टम की विश्वसनीयता पर और सवाल। उमर खालिद का केस सिर्फ एक व्यक्ति का नहीं—यह उन लाखों केसों का प्रतीक है जहां “बेल इज रूल, जेल इज एक्सेप्शन” सिर्फ किताबी बात बनकर रह गया। न्यायिक सुधार (जैसे फास्ट-ट्रैक कोर्ट, डिजिटल ट्रायल) जरूरी हैं, वरना “मदर ऑफ डेमोक्रेसी” का तमगा खोखला हो जाएगा। क्या सुप्रीम कोर्ट इतिहास रचेगा, या इतिहास दोहराएगा? इंतजार।
अंत में एक सवाल आपसे भी:
अगर आपके भाई, बेटे या दोस्त का नाम किसी एक FIR में होता और पाँच साल तक ट्रायल शुरू न होता, तो आप क्या करते? क्या चुप रहते या सड़क पर उतरकर सवाल पूछते?
उमर खालिद को इंसाफ़ चाहिए।
शरजील इमाम को इंसाफ़ चाहिए।
गुलफिशा फातिमा को इंसाफ़ चाहिए।
और सबसे बढ़कर — हमारे न्यायिक सिस्टम को इंसाफ़ चाहिए।
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रिपोर्ट: इस्माटाइम्स न्यूज डेस्क.
